SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यश्री तुलसी के अनुभव चित्र मुनिश्री नथमलजी प्राचार्यश्री तुलसी विविधतानों के संगम हैं। उनमें श्रद्धा भी है, तर्क भी है, सहिष्णुता भी है, आवेग भी है, साम्य भी है और शासक का मनोभाव भी है। हृदय का सुकुमारता भी है और कठोरता भी है, अपेक्षा भी है और उपेक्षा भी है। राग भी है और विराग भी है। विरोधी युगलों का संगम अनेकान्त की भाषा में प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त विरोधी युगल होते हैं। प्राचार्यश्री भी एक व्यक्ति हैं। उनमें भी अनन्त विरोधी युगलों का संगम हो, वह कोई आश्चर्य नहीं। अस्तित्व की दृष्टि से आश्चर्य-जैसा कुछ है भी नहीं। प्रत्येक प्रात्मा में अनन्त ज्ञान है, अनन्त-दर्शन है, अनन्त आनन्द है और अनन्त शक्ति है । आश्चर्य का क्षेत्र है, अभिव्यक्ति । अदृश्य जब दृश्य बनता है, तब मन को चमत्कार-सा लगता है। पानी का योग मिलता है, मिट्टी की गन्ध अव्यक्त से व्यक्त हो जाती है। अग्नि का योग मिलता है, अगर की गंध अव्यक्त मे व्यक्त हो जाती है। मिट्टी में और अगर में गन्ध जो है, वह असत नहीं है; वस्तु के बहुत सारे पर्याय, बहुत सारी शक्तियाँ अव्यक्त रहती हैं; अनुकल निमित्त मिलता है, लब वे व्यक्त हो जाती हैं। वह अभिव्यक्ति ही चमत्कार का केन्द्र है। पौद्गलिक विज्ञान और क्या है ! यही पद्गल की अव्यक्त शक्तियों के व्यक्तीकरण की प्रक्रिया। _धर्म और क्या है ? यही चैतन्य की अव्यक्त शक्तियों के व्यक्तीकरण की प्रक्रिया। इसीलिए उनके संस्थान चमत्तार से परिपूर्ण है। प्राचार्यश्री का व्यक्तित्व भी इसीलिए आश्चर्यजनक है कि उसमें बहुत सारी शक्तियों को व्यक्त होने का अवसर मिला है। हमें प्राचार्यश्री के प्रति इसीलिए आकर्षण है, उनकी उपलब्धियाँ विशिष्ट हैं । और सर्वोपरि आकर्षण का विषय है उनकी शक्तियों की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया। हम उनको विशिष्ट उपलब्धियों को देख केवल प्रमोद का अधिकार पा सकते है; किन्तु अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को जान कर हम स्वयं प्राचार्यश्री तुलसी बनने का अधिकार पा मकते हैं। प्रायोगिक जीवन तपे बिना कोई भी व्यक्ति ज्योति नहीं बनता और खपे बिना कोई भी व्यक्ति मोती नहीं बनता, यह शाश्वत स्थिति है; पर जनतन्त्र के युग मे तो यह बहुत ही स्पष्ट है। प्राचार्यश्री ने बहुत तप तपा है, वे बहुत खपे हैं। जनता बी भाषा में, उन्होंने जन-हित-सम्पादन के लिए ऐसा किया है। उनकी अपनी भाषा में, उन्होंने अपनी साधना के लिए ऐमा किया है। प्रात्मोपकार के बिना परापकार हो सकता है, इसमें उनका विश्वास नहीं है। उनके अभिमत में परोपकार का उत्स प्रात्मोपकार ही है। जो अपने को गँवाकर दूसरों को बनाने का यत्न करता है, वह औरों को बना नहीं पाता और स्वयं को गँवा देता है। दूसरों का निर्माण वही कर सकता है, जो पहले अपना निर्माण कर ले। प्राचार्यश्री को व्यक्तिनिर्माण में जितना रस है, उसमे कहीं अधिक रस अपने निर्माण में है। लगता है, यह स्वार्थ है; पर उनकी मान्यता में, परमार्थ का बीज स्वार्थ ही है। उन्होंने अपने विषय में जो अनुभव प्राप्त किये हैं। वे उन्हीं की भाषा में इस प्रकार हैं"मेरा जीवन प्रयोगों का जीवन है । मैं हर बात का प्रयोग करता रहता हूँ; जो प्रयोग खरा उतरता है, उसे स्थायी
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy