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________________ मण्याप ] सम्भवामि पुगे पुगे [ ४५ इतना शथिल्य आ गया है कि संयम का कुछ भी मुल्य नहीं रहा । भारतीय संस्कृति का प्राण ही मंयम है। संयम-प्राण प्रणवत-प्रान्दोलन प्रारम्भ करके प्राचार्यश्री तुलसी ने अपनी धर्मनिष्ठा और दूरदर्शिता दिखलाई है। अणुव्रत के अन्तर्गत जो पाँच व्रत हैं, अर्थात् अहिंसा, सत्य, प्रचीर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये भारतीय संस्कृति से स्वल्प परिचय भी रखने वालों के लिए कोई नई बात नहीं है। भारत में जितने धर्म उत्पन्न हुए, उन सबमे इनका प्रथम स्थान है। क्योंकि ये सब संयममूलक हैं और संयम ही भारतीय धर्मों का प्राण है। अथवा धर्म-मात्र का, चाहे वह भारतीय हो अथवा विदेशी, संयम ही किमी-न-किमी रूप में प्राण है। इन व्रतों को स्वीकार करने में वि.मी भी धर्म के अनुयायियों को प्रापत्ति नहीं होनी चाहिए। ये व्रत इसलिए अणुव्रत कहे गये हैं कि महावत इनसे भी बढ़कर हैं और उनके पालन करने में अधिक प्राध्यात्मिक शक्ति अपेक्षित है । परन्तु माधारण व्यक्तियों के लिए अणुव्रतों के पालन में भी चरित्र चाहिए । जनता में इन पांचों तत्वों के अभाव असंख्य रूप ग्रहण किये हुए हैं। अहिसा ही को लीजिये । इसके अभाव का बहुत स्पष्ट रूप नो ग्रामिषभोजन है। परन्तु इसके और भी असंख्य रूप हैं जिनको पहचानने के लिए विकसित बुद्धि अपेक्षित है। इनके पालन में त्याग की आवश्यकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अगर कोई व्यक्ति मच्ची निष्ठा से इनका पालन करे तो उसके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन हो जाता है। समाज से उसका सम्बन्ध प्रानन्दमय हो जाता है, वह भीतर मे मुग्वी बन जाता है । शर्त यह है कि श्रद्धा हो । व्रतों का पालन भीतरी प्रेरणा से हो, बाहर के दबाव से नहीं। भारतीय संस्कृति का एक पुष्प जिम पद्धति में प्राचार्यश्री तुलमी ने प्रणवत-ग्रान्दोलन प्रारम्भ किया और उसको समस्त भारत में फैलाया, उससे उनके व्यक्तित्व का प्रावल्य और माहात्म्य स्पष्ट होता है। पहले तो उन्होंने इस काम के लिए अपने ही जैनमम्प्रदाय के कुछ साधुश्रो और साध्वियों को तैयार किया । अव उनके पास प्रनेकों विहान्, सहनशील,हर एक परिस्थिति का सामना करने की शक्ति रखने याले सहायक हैं जो पद-यात्रा करते हुए भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में संचार करते है और जनता में नये प्राण फंक देते हैं। उनकी नियमबद्ध दिनचर्या को देख कर जनता प्राश्चर्यचकित हो जाती है। उमके पीछे शताब्दियों की परम्परा काम कर रही है। प्राचार्यश्री और उनके सहायकों की जीवनशैली प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक विकसित पुष्प है । इस प्रकार की जीवन मेली भारत के बाहर नहीं देखी जा सकती है । इस पुण को प्राचार्यजी ने भारतमाता की सेवा में समर्पित किया है। आजकल के गिरे हुए भारतीय समाज में आचार्यश्री का जन्म हुआ । यही लक्षण है कि इस समाज का पुनरुत्थान अवश्य होगा।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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