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________________ प्राचार्यचौतुलसी अभिनन्दन पन्थ एक एककर पोसभी प्रब गये कार। भडा, मान बिना पया पियाम हरती भार। पो लक्ष्मण के भी सभी है निरर्थ हथियार। बया-बान, संयम बिना ज्यों होते निस्सार । युद्ध के वर्णन में प्राचार्यश्री तुलसी ने एक परम्परा-मर्यादा रखी है। उसे विकराल बनाने के लोभ से शब्दों का भाडम्बर खड़ा नहीं किया। सहज शैली से युद्ध की भूमिका में मानव-मन के प्रतिद्वन्द्रों को ही प्रमुख स्थान दिया है। इस प्रसंग के बाद इस प्रबन्ध काव्य का उत्कर्ष स्थल और उपसंहार एक साथ आता है। फलागम की दृष्टि से यह अध्याय अन्त में है, किन्तु इस पर उत्कर्ष जिस रूप में चित्रित किया गया है, वह लोक विख्यात कथा से कुछ भिन्न है । लोक-कथानों में राम ने सीता की अग्नि-परीक्षा लंका से आने पर साकेत नगरी में प्रवेश से पहले ली थी, किन्तु आचार्यश्री तुलसी के काव्य में जैन-परम्परा का ग्रहण हुआ है और सीता की अग्नि-परीक्षा राम ने अपनी प्रान्म-ग्लानि के उपरान्त अपने अन्तर की प्रबल प्रेरणा से ली है। राम की अन्तरात्मा सीता को सर्वथा शुद्ध, सती-साध्वी मान रही है, अतः यह प्रावश्यक प्रतीत हमा कि जनापवाद के निरसन के लिए बाह्य परीक्षा भी की जाये। नहीं, नहीं मेरे मन में तो शंका जैसा कोई तत्व, वयिते! अप्रतिहत प्रास्थाहै मानों ज्यों क्षायक सम्यक्त्व। जड़जन का उन्माद मिटाने सचमुच यही अचूक दवा, सफल परीक्षण हो जाने से हो जायेगी शुद्ध हवा । सीता अग्नि-कुण्ड में प्रविष्ट होने के लिए उद्यत हुई। उसके मन में अटूट विश्वास का तेज था। वह निर्भय भाव से प्रसन्न मुद्रा में अग्नि में प्रविष्ट हुई : चीर क्षितिज की छाती भास्कर नभ प्रांगण में चढ़ता है, मुनि ज्यों बन्धन-मुक्त साधना-पथ पर प्रागे बढ़ता है। प्राण प्राण है, प्रणव्योम है, अरुण सलिल है, अरुण धरा, तरुण महणता लिये ज्योतिमम रूप मैथिली का निखरा। बिना हताशन-स्नान किये होता सोने का तोल नहीं, महीं शाण पर चढ़ता तब तक हीरे का कुछ मोल नहीं, कड़ी कसौटी पर कस अपनी अभिनव ज्योति जगाएगी, सूर्य वंश को विजय पताका भूतल पर लहराएगी। सीता के दिव्य एवं पवित्र चरित्र का प्रभाव ऐमा हुया कि प्रज्वलित हुताशन की लपटें क्षण-भर में शीतल सलिल की तरंगें बन गईं और मती सीता उसके ऊपर शान्त सुस्थिर भाव से विराजमान दृष्टिगत हुई। किसी अज्ञात शक्ति के प्रभाव से वह अग्नि-कुण्ड मणि-मंडित सिंहासन बन गया। उस पर बैठी सीता ऐसी लगी जैसे हंस वाहन पर साक्षात् सरस्वती सुशोभित हो रही हो : मणि-मंडित स्थगिम सिंहासन कर रहा सूर्य-सा उद्भासन, है समासीन उस पर सीता सुख पूर्वक साधे पदमासम, मानो मराल पर सरस्वती उत्पल पर कमला कलावती।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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