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________________ अध्याय ] प्राचार्यश्री तुलसी के प्रबष काम्य [ २५७ सज्ञानोपरि सम्यक् भया, त्यों हुई सुशोभित महासती। संक्षेप में, अग्नि-परीक्षा भी एक प्रभिधा प्रधान सरस प्रबन्ध काव्य है जिसे प्राचार्यश्री तुलसी ने लय और स्वरों में बांध कर गेय बनाने का प्रयास किया है। यदि इस काव्य को प्रचलित गीन स्वरों में न बाँध कर विषयानुकूल प्रवाह में बहने दिया जाता तो निश्चय ही इसका काव्य सौष्ठव अधिक उत्कृष्ट होता। ग्रंथ-सम्पादक मुनिश्री महेन्द्रकुमार ने अपनी सम्पादकीय भूमिका में ग्रंथ की तुलनात्मक समीक्षा करते समय मैथिलीशरण गुप्त रचित साकेत का संकेत किया है। कुछ स्थल उद्धृत करके साम्य-वैषम्य दिखाने की भी उन्होंने चेष्टा की है, किन्तु उनका ध्यान इस तथ्य की ओर शायद नहीं गया कि साकेत के प्रणेता गार्हस्थ्य जीवन की मोहक झांकियाँ प्रस्तुत करने में बेजोड़ हैं । सद्गृहस्थ होने के कारण उनके काव्य में गाहस्थिक जीवन की मर्म छवियों के अनुभूत चित्र जिस रूप में उभर कर पाते हैं, वैसे एक वीतराग साधु की लेखनी से कैसे सम्भव हो सकते हैं । वियोग और करुण भाव की योजना के लिए भी जिस प्रकार की अनुभूति चाहिए, वैसी एक संत के प्रास नहीं हो सकती। यह दूसरी बात है कि धार्मिकता-नैतिकता का जीवन चित्र उनके काव्य में आ जाये, किन्तु गहस्थी की भावना को साकार कैसे कर सकेंगे! यही कारण है कि 'अग्नि-परीक्षा में पवित्रता और धार्मिकता का वातावरण अधिक है, गृहस्थ जीवन का नहीं । रामायण के जिस प्रसंग का प्राचार्यश्री तुलसी ने चयन किया है उसके लि. उपसंहार में नैतिक और धार्मिक उपदेशों के लिए अवकाश होने पर भी प्रारम्भ और मध्य में व्यावहारिक जीवन की कड़वी-मीठी सामान्य मनुभूतियाँ ही अधिक उभर कर पानी चाहिए थीं। 'अग्नि-परीक्षा का सबसे बड़ा गण है, उसकी सुबोध शैली और रोचक कथा-प्रसंगों की अन्विति । कवि की वारधारा सरस-स्निग्ध होकर जिस रूप में प्रवाहित हुई है, वह सर्वत्र कथा के अनुकूल है। रोचकता की दृष्टि से यह काव्य व्यापक यम का भागी होगा। कहीं-कहीं गेय रागों का प्रबल अाग्रह पद-योजना तथा अर्थ-तत्त्व को इतनी साधारण कोटि तक उतार लाया है, जो ग्रंथ के विषय-गांभीर्य की दष्टि से घातक है। किन्तु प्रचारात्मक दृष्टिकोण के कारण शायद प्राचार्यश्री को यह माध्यम प्रत्युपयुक्त प्रतीत होता है। मैंने दोनों काव्य ग्रन्थों का प्रबन्धात्मक दृष्टि से ही विश्लेषण किया है। रस, ध्वनि, अलंकार ग्रादि के गणदोषविवेचन में जान-बूझकर नहीं गया हूँ। मैंने इन दोनों काव्यों में प्रबन्धात्मकता का गुण पूरी तरह पाया है और एक तटस्थ पाठक की भांति इन्हें पढ़ कर पर्याप्त प्रानन्द प्राप्त किया है। इन दोनों प्रवन्ध काव्यों की एक उल्लेख्य विशेषता यह भी है कि इनका ध्येय नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करना होने पर भी कवि ने प्रतिपाद्य को इस प्रकार गठिन किया है कि उसमें लोक-व्यवहार-ज्ञान की प्रत्यधिक सामग्री एकत्र हो गई है। इन दोनों प्रबन्ध काव्यों के अनुमीलन से प्रत्येक पाठक की लोकदष्टि व्यापक बनेगी और उसके दैनन्दिन जीवन में होने वाली घटनाओं से इन काव्यों की घटनाओं का तादात्म्य हो सकेगा। आचार्यश्री तुलसी का जीवन धार्मिक एवं नैतिक आदर्शों का साकार रूप है। उन्हीं आदर्शो को लोकभाषा में निबद्ध करना उनका ध्येय था। कथा-प्रसंग तो व्याज-मात्र है, किन्तु उनका निर्वाह जितनी सावधानी से होना चाहिए था, उतनी ही सावधानी से किया गया है। प्राचार्यश्री तुलमी वीतराग प्राचार्य होने पर भी लोक चेतना से सम्पृक्त रहते हैं और उसके उन्नयन और उत्थान के लिए किये गये उनके अनेक प्रयोगों में इन काव्य ग्रन्थों का भी अमिट योग है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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