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________________ मम्माय ] रस युगप्रथम व्यक्ति [ २०६ राष्ट्रहित-साधम नागरिकों की सुख-समृद्धि के लिए किये जाने वाले प्रयास का नाम है। हम वर्तमान काल को राष्ट्रनिर्माणकाल की संज्ञा देते हैं। अतः हमारे लिए यह मावश्यक है कि हम राष्ट्र-निर्माणात्मक अपने कार्यों पर एक दृष्टि डाल लें और यह देख लें कि हम कितने पानी में हैं। इस सम्बन्ध में हमें दो बातों की विवेचना करनी होगी। एक तो यह कि क्या हम सचमुच राष्ट्र-निर्माण कर रहे हैं और दूसरी यह कि क्या हमारा प्रयास स्थायी परिणाम का जनक होगा। नैतिकता व अनैतिकता का सम्बन्ध हमारी पंचवर्षीय योजनाएं निःसन्देह देश के प्रार्थिक स्तर को उठाने वाली हैं; किन्तु हम यह कैसे समझे कि योजनाओं द्वारा राष्ट्र का उच्चीकृत स्तर देश में सुख-शान्ति की सृष्टि करेगा और यदि सुख-शान्ति के हमें दर्शन भी हर तो इसका क्या भरोसा कि हम उसे पकड़ कर रख सकेंगे। समृद्ध नागरिक का नैतिक स्तर उच्च ही होगा, यह कहना स्वयं अपने को भ्रम में डालना है। वास्तविकता तो यह है कि नैतिकता-अनैतिकता का सम्बन्ध धन अथवा दरिद्रता से बिल्कुल नहीं। यदि अनैतिकता का प्रसार अवरुद्ध नही हुअा तो वह बढ़ेगी और उसका बढ़ना क्या होगा, कहाँ तक होगा, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हीन चरित्र के नागरिक से राष्टोत्थान की आशा करना बुद्धिमानी की बात नहीं; क्योंकि वह अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकता है। राष्ट्र को बेच सकता है, राष्ट्र की इज्जत को गिरवी रख सकता है। राष्ट्रनिर्माणार्थ आवश्यक है कि उसमें नैतिक बल उत्पन्न किया जाये। राष्ट्रोत्थान तभी सम्भव होगा, जब नागरिक का नैतिक उत्थान होगा, जब नागरिक अपना कर्तव्य समझना होगा और उसका पालन करना होगा। जब नागरिक अपने कर्तव्यों प्रौर दूसरे के अधिकारों की रक्षा को अपना घमं मानता है, तभी राष्ट्र का वास्तविक उत्थान होता है और वह उत्थान उत्तर्षोन्मग्न रहता है। गिरती हुई ननिताको रुकने की सुविधा मिलना कठिन हो जाता है। दूर न जाकर हमे अपने गरही एक दप्टि डालनी होगी। यह एन तथ्य है कि स्वतन्त्र होने के पश्चात् आर्थिक दृष्टि से देश कुछ ऊपर उठा है, किन्तु साथ ही यह एक विचित्र मी बात हुई कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र हीन ही होता चला गया है । प्रापिर ऐसा क्यों? हम ऊपर तह चुके हैं कि हम नैतिकतापूर्ण राजनैतिक आन्दोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर स्वतन्त्रता के मन्दिर तक पहँच सके है। तब हमारा चरित्र आज हीन क्यों है ? कारण केवल इतना है कि स्वतन्त्र होने के पश्चात स्वतन्त्रता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उसको नैतिकता का सिंहासन देना हम आवश्यक नहीं मान सके। हमने सुख-समृद्धि के लिए तो वारतविक प्रयास जारी रखा, किन्तु मार्ग-भ्रष्ट हो गये; अतः फल विपरीत हुा । सुग्व-समृद्धि का युग तो चलता ही रहा, किन्तु नैतिकता का युग समाप्त हो गया। परिणाम यह हुआ कि सुख-समृद्धि में न्यूनता नहीं पाई, किन्तु शक्ति नष्ट होना प्रारम्भ हो गई। हमको अपनी-अपनी पड़ गई। हमने कर्तव्य का पल्ला तो छोड़ दिया, किन्तु अधिकारी की मांग करने में एक-दूसरे को पीले धकेल कर आगे बढ़ने के प्रयाम में जुट गए। विवेक को चालाकी ने पराजित कर दिया। कर्तव्य-भावना को अवसरवादिता ने रौंद डाला। इस वातावरण में हम गष्ट्र-निर्माण कर रहे हैं। यह हम जानते है कि राष्ट्र-निर्मातामों की कर्तव्य-भावना मन्देह से परे है; किन्तु जिन ईटो से भवन खड़ा हो रहा है, वे कच्ची है, घटिया किस्म की हैं। तब पक्का और मजवून भवन खड़ा कैसे होगा? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नैतिकता की अपरिहार्यता को ठीक-ठीक समझते थे, अतः उसको उन्होंने अपने आन्दोलन का आधार बनाये रखा । महात्माजी के पश्चात् उनके सिद्धान्त को यथावत् समभने वानी और उनको कार्यान्वित करने वाली देश में केवल दो विभूतियाँ रह गई : एक तो प्राचार्य विनोबा भावे और दूसरे प्राचार्य तलसी। प्राचार्य तलसी की विशेषता यह है कि उन्होंने देश में नैतिकता की स्थापना को ही अपने जीवन का लक्ष्य घोषित किया और अपनी घोषणा को सत्य एवं फलवती सिद्ध करने के लिए उन्होंने अणुव्रत-अान्दोलन का प्रवर्तन कया।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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