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________________ २०० ] प्राचार्यभी तुलसी प्रभिनन्दन ग्रन्थ • [ प्रथम हमें विद्या प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती थी। कुछ अल्पचेता लोग 'देवानांप्रिया एते' कहकर हमारा तिरस्कार कर जाते, पर आज तुम्हारे सामने ऐसा करने का कोई साहस नहीं कर सकता। उन्हें अपने धम की फल-परिणति पर सन्तोष था। उनका जीवन कितना सादा था, यह तो प्रत्यक्षदर्शी ही जान सकता है। रात भर दो चिलमिलियों पर लेटे रहते । महान् आचार्य होने पर खान-पान इतना साधारण कि देखने वाले पर वह प्रभाव डाले बिना नहीं रहता। धम में बड़ी निष्ठा थी : वे बहुत बार कहते थे कि श्रम के प्रभाव में भाज कल नए-नए रोग बढ़ रहे हैं। कोई साधु दुर्बल होता तो वे उसे कहते दूर जंगल से झोली भर रेत जाम्रो परिश्रम करो शरीर का पसीना निकल जायेगा। अधिक चिकना भोजन मत करो। इन दवाओं में क्या धरा है ? वे स्वयं बहुत श्रम-शील थे। उनका स्वास्थ्य बहुत ही अच्छा था । श्रौषध पर उनकी ग्रास्था जैसे थी ही नहीं। वे साधारण काष्ठादि औषध से ही काम चला लेते । ज्वर होने पर लघन कराते । चाय से तो पटती ही नहीं थी। उनके सामने दूसरे साधु चाय का नाम लेते ही सकुचाते थे। आचार्यवर की इन विशेषताओं से मै अत्यन्त प्रभावित हूँ ये मेरे क्षण-क्षण में रम रही है। उन्होंने मुझे सदा अपनी करुणाभरी दृष्टि से सीचा। इतना सीवा कि उसका वर्णन करने के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं है। मैंने कुछ भूलें भी की होंगी, पर वे उनका परिमार्जन करते गए। मुझे कभी दूर नहीं किया। यह कहना कठिन है कि मैं उनको कितनी विशेषताओं का आकलन कर पाया हूँ। उनकी अनेक विशेषताओं का मेरे मन पर अमिट प्रभाव है । उन्ही के प्रसाद की खुराक पाकर मेरा जीवन बना है। यह कहते हुए मुझे सात्विक गर्व का अनुभव होता है।" निर्माण लिये आये हो मुनिश्री बच्छराजजी कलाकार ! इस धरती पर निर्माण लिये श्राये हो । पहिचान लिये बाये हो । गृह कना जीवन की तुम लगता ऐसा बाहर से तुम, वाघ रहे जीवन को, पर का भीतर तो पाया, खोल रहे बन्धन को, रश्मि-बन्ध से तुम जीवन के स्थल को बांध रहे हो, नियम-बन्ध से जग मानस को, जल को बाँध रहे हो, मुक्ति दूत ! तुम बन्धन में परित्राण लिये आये हो । कलाकार ! इस धरती पर निर्माण लिये आये हो। निष्क्रिय सुन्दरता को कृति में, स्थान दिया सब तुमने, सक्रिय जीवन तत्त्वो पर ही ध्यान दिया बस तुमने, ग्रा जाता सौन्दयं स्वयं जब, गौरव भर देते हो, वन की कली-कली में मधुमय, सौरभ भर देते हो, चित्रकार ! निज चित्रों में तुम प्राण लिये धाये हो। कलाकार ! इस धरती पर निर्माण लिये श्राये हो । भौतिक युग में आज मनुज, मनुजत्व गमा बैठा है, उठ पाये खुद कैसे जब निज सत्व गमा बैठा है, शक्ति पुञ्ज ! प्रव युग तेरा आलम्बन मांग रहा है, धरणी का कण-कण तेरा पद-चुम्बन मांग रहा है, विश्व प्राण! तुम संयम का माहान लिये आये हो। कलाकार ! इस धरती पर निर्माण लिये आये हो ।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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