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________________ अध्याय } प्राचार्य के जीवन-निर्माता free गुरुदेव ने फिर पूछा-पान ही पाये आपका विरोध आपके जाने से पहले अपने में ही लीन थे। एक, दो, तीन दिन बीत गए। चौथा दिन पाया। एक पंडितजी पाये। गुरुदेव ने पूछा- 'यहीं के रहने वाले है ?" पंडितजी ने कहा- 'यहीं रहता हूँ यह सामने ही मेरा घर है' हैं ?' पंडितजी ने कहा- 'आया नहीं हूं माना पड़ा है।' 'तो कैसे ?' पंडितजी दोगे ही शुरू हो चुका था । आप आये उस दिन से आज तक आपकी ओर ने प्रतिविरोध नहीं हुआ। मैंने सोचा प्राज आये हैं, थके-मांदे होंगे, शायद कल करेंगे। दूसरा दिन बीता कोई विरोध नहीं किया गया। मैंने सोचा ---तैयारी करते होंगे, विरोध करने के लिए तीसरे दिन भी कुछ नहीं हुआ। मैंने सोचा- 'जहाँ एक व्यक्ति को 'क' करते देख दूसरे व्यक्ति को उबाक माने लगता है वहां प्राज चौथा दिन है फिर भी कुछ नहीं हुआ अवश्य ही इनकी पाचन शक्ति गुड़ है। इनमें मारे विरोध को पचाने की क्षमता है। मैं इस इक तरफे विरोध मे खिचाविचा आाया है। arora का विरोध भी बड़ा प्रबल था। साधुओं को प्रतिदिन पचासों गालियाँ सुनने को मिलती थी। फिर भी मौन, सर्वथा मौन । वह दिन मुझे याद है जब गुरुदेव ने सब साधुओं को एकत्रित कर शिक्षा के स्वर में कहा था- 'मैं जानता हूँ तुम्हें गालियां सुनने को मिल रही है। मैं जानता हूँ तुम्हारे पर आक्रोश किया जा रहा है, व्यंग कसे जा रहे है, 'फिर भी तुम साधु हो, इसलिए तुम्हें मौन ही रहना चाहिए। तुम्हारा धर्म है सब मुनो, वापस एक भी मत पूछो। यही मेरी आज्ञा है'।" कालुगणी विरोध को सदा बोध-पाठ मानते रहे । प्राचार्यश्री तुलसी का मानस भी उसी मे प्रतिबिम्बित है। कुछ लोग इस विरोध को ईश्वरीय कृपा बतलाते है । श्राचार्यश्री तुलसी बाड़मेर में थे । वहाँ एक रेलवे गार्ड आया । वह बोला- 'कुछ लोग आपकी आलोचना करते है, किन्तु में नमझता हूँ उन्होंने अभी साधना का पथ नहीं पाया। गुरुजी ! आप पर ईश्वर की बड़ी कृपा है।' 'सो कैसे ?' 'आपके साथ कोई न कोई विगंध वना रहता है। बिना कृपा के ऐसा हो नहीं सकता ।" निर्मिति और निर्माता में जो अभेद होना चाहिए, वह बहुत ही प्रगाढ़ है । इसीलिए प्राचार्यश्री तुलसी को समझने के लिए पूज्य गुरुदेव को समझना आवश्यक है। मनुष्य की यह असमर्थता है कि वह जितना होता है, उतना जान नहीं पाता। जितना जान पाता है, उतना कह नहीं पाता। इसीलिए एक महान को मैंदों की लघु सीमा में बांध दिया । इम ग्रममर्थता का भागी केवल मैं ही नहीं हैं, स्वयं आचार्यश्री भी है। उन्होंने अपने निर्माता को स्वरूप रेखाओं में चित्रित किया है। मेरी ममता को अवश्य ही थोड़ा प्रालम्बन मिलेगा। वे इस प्रकार है- "मैं कई बार सोचना है, मेरे जीवन पर किन-किन का प्रभाव पड़ा। इस दिशा में सबसे पहले मुझे दीखते हैं पूज्य कालगणी, उन्होंने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है। दीक्षा के पहले दिन जो पहला ग्राम मिला, उससे लेकर उनके अन्तिम स्वास तक उनका अविरल प्रभाव मुझ पर पडता रहा। उनके जीवन की अविरल विशेषताएं आज भी मुझे प्रेरित कर रही है। पूज्य गुरुदेव ब्रह्मचर्य के प्रतीक थे । उनका ललित ललाट तथा दिव्य ग्रात्म बल इसका साक्षी था। नारी मात्र के प्रति उनमें मदा 'मातृवन्' की भावना मैंने साक्षात् देखी। वे इसलिए महामानव थे कि उन्होंने जिसके सिर पर अपना वरद हाथ रख दिया, वह तब तक नहीं हटा जब तक वह उचित पथ से नही हटा, फिर भले ही उसके पास धन रहा या नही। और कुछ रहा या नहीं रहा। पवित्रता रही तो उनका हाथ बना का बना ही रहा । वे विचारों के स्वतन्त्र और महान् तटस्थ थे। मंत्री मुनि उनके अनन्य थे। पर कई विचार उनसे मेल नहीं बाने सो नहीं ही खाते। जिस पर भी कभी कोई मनोभेद नहीं हुआ। प्रेम प्रथाह ही रहा। सचमुच वे एक साधारण व्यक्ति थे। विद्यानुराग उनके जैसा बिरले ही मिलेगा। उन्होंने अथक प्रयास व विभिन्न उपायों में विद्या का जो स्रोत बहाया. उससे बाज हमारा समूचा संघ निष्णात है। एक दिन उन्होंने कहा था-"शिष्यो ! तुम नही जानते, हम विद्यार्थी ब १ प्रवचन डायरी १९५३, ०११-१२ २०३४६
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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