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________________ ( २६ ) विजयहर्प जसु नाम बधता, विजयहर्प गुण-व्यापी जी। सद्गुर वचन तणे अनुसारी, धर्म सीख मुनि धारी जी। कहे धर्मवर्द्धन सुखकारी, चउपइ ए सुविचारी जी। (अमरसेन वयरसेन चौपाई, संवन् १७२४, सरसा) इस प्रशस्ति मे उल्लिखित जिनचन्द्रसूरि तो आपके दीक्षा-गुरू थे और उस समय के गच्छनायक थे। जिनभद्रसूरि सुप्रसिद्ध जैसलमेर ज्ञानभंडार आदि के स्थापक है जिन्हे संवत् १४७५ में आचार्य पद प्राप्त हुआ था और १५१४ मे जिनका स्वर्गवास हुआ। उनकी परम्परा के उपाध्याय साधुकीर्ति से धर्मवर्द्धनजी ने अपनी परम्परा जोडी है । साधुकीर्ति का समय संवत् १६११से १६४२ तक का है। ये बहुत अच्छे विद्वान थे। हमारे सम्पादित "ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह" में आपके जीवन से संबधित ६ रचनाए प्रकाशित हुई है । उनके अनुसार "ओशवाल वंशीय सचिंती गोत्र के शाह वस्तिग की पत्नी खेमलदे के आप पुत्र और दयाकलशजी के शिष्य अमरमाणिक्यजी के सुशिष्य थे। आप प्रकाण्ड विद्वान थे। सवत् १६२५ मि० व० १२ आगरे मे अकवरकी सभा मे तपागच्छीय बुद्धिसागरजी को पोपह की चर्चा मे निरुत्तर किया था और विद्वानों ने आपकी बड़ी प्रशसा की थी, सस्कृत मे आपका भापण वड़ा मनोहर होता था।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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