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________________ ( ३० ) सवत १६३२ माधव (वैशाख ) शुक्ला १५ को जिनचद्रसूरि जी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था और अनेक स्थानो मे विहार कर अनेक भव्यात्माओं को आपने सन्मार्ग-गामी बनाया था। सवत् १६४६ में आपका शुभागमन जालोर हुआ, वहा माह कृष्ण-पक्ष मे आयुष्य की अल्पता को ज्ञात कर अनशन “उच्चारणपूर्वक आराधनाकी और चतुर्दशी को स्वर्ग सिधारे। “आपके पुनीत गुणों की स्मृति मे वहा स्तूप निर्माण कराया गया, उसे अनेकानेक जन समुदाय वन्दन करता है। साधुकीर्तिजी अमरमाणिक्य के शिष्य थे, जिनका समय सवत् १६०० के करीव का है अतः जिनभद्रसूरि और अमरमाणिक्यजी के बीच की परम्परा में तीन-चार नाम और होने चाहिये। साधुकीर्ति के आपाढभूति प्रबंध के अनुसार "वा० मतिवर्द्धन शिष्य मेरुतिलक शिष्य दयाकलश के शिष्य अमरमाणिक्य थे। पर साधुकीर्तिजी बहुत प्रसिद्ध विद्वान हुए इमलिए धर्मवर्द्धनजी ने अपनी गुरु परम्पग के वे बीच के नाम नहीं देकर साधुकीर्तिजी से ही अपनी परम्परा मिला दी है। साधुकीर्तिजी की सस्कृत और राजस्थानी की कई रचनाए मिलती हैं, उनमें से प्रधान रचनाओं की नामावली नीचे दी जा रही है। (१) सप्तस्मरण बालावबोध-संवन् १६११ दीवाली, बीकानेर के मंत्री सग्रामसिंह के आग्रह से रचित ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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