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________________ २६४ - धर्मवईन ग्रन्थावली ढाल ( ४ ) सुगुण सनेही मेरे लाला, रहनी चौथे व्रत भार्ग अतिचार, जघन्ये छठ आलोयण धार । मध्ये दस उपवास विचार, उत्कृष्ट गुणि लख नवकार ॥ २२ ॥ परिग्रह विरमण ढोप प्रसग, तीन गुण व्रत माहे भंग ।। च्यार शिक्षाबूत रे अतिचार, आविल त्रिण प्रत्येके धारे ।२३। शील तणी नव वाडि कहाय, तिहा जौ लागौ दोष जणाय । त्रिय नै फरस हुआ अविवेक, इक आविल कीजें प्रत्येके ।।२४।। साध अनै श्रावक पोपीध, एकेन्द्री संघट्टे कीध । वीसर भोल सचित जल पीध, दंड एकासण अंबिल दीध ॥२५॥ विण धोये विण लुह्य पात्र, एकासण तिम पुरिमढ मात्रै । गई मुहपोती आविल सारौ, तिम ओधै अदिम अवधारौ ।२६। च्यार आगार छ छीडी राखे, व्रत पचखाण करै पट साखें । दोघे मिच्छादुक्कड़ दाखै, आलोयण तेह नै अभिलार्षे ॥२७॥ आलोयण ना अति विस्तार, पूरा कहता नावे पार । तौ पिण संखपे ततसार. निर्मल मन करतां निसतार ॥ २८ ॥ धन श्री वीर जिणेसर सामी, जसु आगम वचने विधि पामी । जीत कलप ठाणा अंग आदि, वलिय परंपर गुरु परसादि २१! कलश ॥ इम जेह धरमी चित्त विरमी पाप आप आलोइ नै एकांत पूछे गुरू बतावै सकति वय तसु जोइ नै विधि एह करसी तेह तरसी धरमवत तणे धुरै ए तवन श्री धमसीह कीधी चौपने फलवधिपुर |॥३०॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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