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________________ शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २६५ वीस विहरमान जिनस्तवनम् वदुमन सुध वइरत माण जिणेसर वीस, ___दीप अढी में दीपं जयवंता जगदीस, केवलज्ञान ने धारै तारै करि उपगार, किण किण ठामै कुण कुण जिन कहिस्यु सुविचार ।१॥ पैतालीस लख योजन मानुष क्षेत्र प्रमाण, वलयाकारै आधै पुष्कर सीमा जाण, दोइ समुद्र सोहै दीप अढाई सार, तिण मे पनरै कर्माभूमि नो अधिकार ।२। पहिलो जवूद्वीप समइ विचि थाल आकार, लावउ पिहलउ इक लख जोइण में विस्तार, मोटो तेहनै मध्य सुदरसण नामै 'मेर, तिण थी दस विदिसानी गिणती च्यारे फेरे ॥३॥ मेरु थकी दक्षिण दिशि एह भरत शुभ क्षेत्र, पाचसै छवीस जोयण छकला तेहनो वेत्र, उत्तर खड मे एहवो इरवइ खेत कहाय, इण बिहुं करमाभूमि अरा छए फिरता जाय ॥४॥ तेत्रीस सहस छसय चौरासी जोयण जाण, च्यार कलाए महाविदेह विपंभ वखाण, भरत थी चौगुणो इक एक विजय तणो परिमाण एहवी विजय बत्तीस विराजे जेहनै ठाण ॥३॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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