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________________ चौवीस जिन सवैया संभव को अनुभौ धरि जाते मिटे ममता समता रस जाग। पाप सताप मिटें तब ही जब आपसुआपही की लय लागे । धगै प्रम सील लही निज लील, जहाँ गुण ग्यान अनंत अथाग। मंभव मभव भाव भले भज, सभव लौ भव के भय भागें 11511 पिता कहें नंदन नीख सुनी, जु चलो अभिनन्दन वन्दन हेते। नन्दन संबर की सुध सवर. 'यंदन धारन है मिवम्वेत । कंद के द निकंदन इंदन, जा ननु कुन्दन की छवि देत । पदन चद मोह जन उजल, चोमो जिनन नमो सुभ चेत ।।४।। मेघकी अंगज मेघनाजन, वाणि वखांणि मुजांण सुहाता । चोतील आपके है अतिर्न, अधिक इक एकही वाणी विख्याता । जैन के बन महाजग मंगल, न्याय तु मगल मंगला माता । पीयपई ईख धरी धमनीव, भजोड गुमत्ति मुमत्ति को दाता ५ आज फल्यो सुर को तम अंगण, आज चितामणि सो कर आयी काम को कुभ धत्वी निज धाम, सुवा मनु पान कराइ धपायो । आज लो ग्लना रस को फल, जादिन तें जिन कोजस गायो। आज मुदही उद ध्रम सील, भयो पदमप्रभु साहिव पायो ।।३।। पारस फास प्रसग कुपाय, भयो है कला यस कंचन जाची । नो भी मिट नहि छेदन भेदन, बंधन तातै सब गुण काची। जन कुमट मिथ्यात कु मेटि, ज्यु केवलज्ञान ही के रंगराची । न्याय मकार धस्यौ धुर नाम के, पारस हुँ ते सुपारस साचौ ७ चंद की सोल कला सबही, वदि पलमे मद दसा मढती है। चाके तो चौगुणी ची दुगुणी' पुनि, वान विसेप सदा वढती है। १ सवर को रथ २ बहत्तर कला
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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