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________________ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली ग्यान प्रकास कहै श्रमदास, सदा जसवाम दुनी पढ़ती है। लछन चन्द करें नित चाकरी, चद्रप्रभू की कला चढती है ।।८।। वाने है अनादि काल 'योनि के जजाल जाल, चोरासी की फासी सहै तू भी ताकै मधिकौं । पुण्य के प्रकार अवतार आयौ मानव के, पायो है जिहाज सोड जन्म जलनिधिको । यारी समतासी जोरि ममता सो ताता तोरि, __ आप ही धणी है तू तो आपणी ही रिधिको । ध्यावौ धर्म सील ध्यान पावौ ज्यु अनंत ग्यान, सुविधि बतायौ असौं मारग सुविधि कौ ॥६॥ क्रोच विरोध सवे मिटि जात है, धारत है मति राग न घेखें। मूलते सात मिटात है घातक, आवत सम्यक भाव अलेखें। ताप सन्ताप मिटं भवके सव, दंड दसा कबहुं नहि देखें। शीतल को मुख देखत ही मुझ, "हीतल शीतल होत विसेपैं ॥२०॥ पाय श्रेयास जिणिद के पाय, उपाय श्रेयासि ५अपाय मिटाए । मातही विष्णु पिता पुनि विष्णु, वडे दुहं के इक नाम वताए । इन्वाकु के वस वृपें अवतंस है, उच्चकै चन्द सबै ही सुहाए। इग्यारमे साहिब की लही सेव, इग्यारमीरासि सवे ग्रह आए ११ ५ गेरासीलाख जीवायोनि २ चार अनतानुबंधिया, तीन गोहिनी एवं सात ३ कलह ४ हियो ५ विचन
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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