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________________ चौवीस जिन सवैया आदि ही को तीर्थकर, आदि ही कौ भिक्षाचर, आदि राय आदि जिन च्यारौं नाम आदि आदि । पाचमा रिपभ नाम, पूरै सब इच्छा काम, कामधेनु कामकुभ कीने सब मादि मादि । मनसौ मिथ्यात मेट, भाव सौं जिणद भेट, पावौ ज्यु अनन्त सुख, गावो गुण वादि वादि । साची धर्म सीख धारि, आदिहि कुं सेवो यार, आदि की दुहाई भाई जो न बोलैं आदि आदि || राजा जितशत्रु संग राणी विजया मुरंग, खेले पासा सार पै. तमासा कैमी बात है। आप भूप हारि आई, पटराणी जैत पाई, या तो अधिकाई गर्भ अर्भ की हिमात है । गुण को निपन्न नाम 'धाम को 'सहस्र धाम, अंसो है अजित स्वामी, विश्व मे विख्यात है। दूसरे जिनंद जैसो, दसरौ न देव को, ध्यावो एक यौही धर्म सीख जो धरातु है ॥२॥ १ तेज २ सूर्य
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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