SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौवीसी १५७ १५. श्री धर्मनाथ स्तवन राग-धन्याश्री घर मन धर्म को ध्यान सदाइ। नरम हृदय करि नर म विषय में, कर म करम दुखदाई धर।१।। धरम थी गर्म क्रोध के घर में, परमति सरमति लाई। परमातम शुद्ध परमपुरुप भज, हर म तु हरम पराई ॥२॥ चरम की दृष्टि विचर मती जिवड़ा, भर म भरम मत भाई। शरम बधारण शर्म को कारण, धर्म ज धर्मशी ध्याई ॥३॥ १६. श्री शान्ति जिन स्तवन राग-वेलाउल अलहियों शान्ति जिननिर्मलो, पूजै समावो धरि श्री शान्ति जिनेश्वर सोलमौजी, शान्तिकरण सुखदाइ। नाम प्रसिद्ध जस निर्मलो, पूजे सहु सुरनर पाय हो ॥ श्रीशा आयउ शरण उबारियौ जी, पारेवो धरि प्यार। दान दियौ निज देह नौ, इम मोटा ना उपगार हो ॥श्री॥२॥ उदरे आवी अवतर्याजी, अधिकाई करी एह । मरको उपद्रव मेटियौ, हष्यों - सहु देश अछेह हो ॥श्री॥३॥ भव एके हिज भोगवी जी, दीपत पदवी दोय। चावौ चक्रवर्ती पाचमौ, सोलम जिनवर सोय हो ॥४॥ समरथ ए लह्यो साहिबौ जी, कमणा नहीं हिवै काय । सेव्या वाछित हुवै सदा, इम कहै धर्मशी उवझाय हो ॥श्री०॥५॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy