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________________ श्री अगरचंद नाहटा ने अपने राजस्थानी साहित्य और जैन कवि धर्मवर्द्धन' शीर्षक लेख (त्रैमासिक राजस्थान, भाद्रपद १६६३ ) में उपाध्याय धर्मवर्द्धन के जीवनवृत्तान्त पर अच्छा प्रकाश डाला है। तदनुसार इनका जन्म स० १७०० मे हुआ था और इनका जन्म नाम 'धरमसी' (धर्मसिंह ) था। इन्होने तत्कालीन खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनरत्नसूरि के पास स० १७१३ में तेरह वर्ष की अल्पायु में ही दीक्षा ग्रहण की और इनका दीक्षा नाम 'धर्मवर्द्धन' हुआ। पद्रहवींशताब्दी के प्रभावक खरतर गच्छाचार्य श्रीजिनभद्रसूरि की शिष्य-परम्पग के मुनि विजयहर्प आप के विवागुरु थे, जिनके समीप रह कर आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। मुनि धर्मवर्द्धन का समस्त जीवन धर्मप्रचार एवं ग्रन्थरचना में ही व्यतीत हुआ। आपने अनेक प्रदेशो, नगरों एवं ग्रामो मे विहार करके धर्म-प्रचार किया और प्रचुर साहित्य-रचना की। आपको अपने जीवन मे बडा सम्मान प्राप्त हुआ। आपकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि फैली। फलतः गच्छनायक श्रीजिनचन्द्रसूरि ने आपको स. १७४० में उपाध्याय पद से अलकृत किया। आगे चल कर गच्छ के तत्कालीन सभी उपाध्यायो मे वयोवृद्ध एवं नानवृद्ध होने के कारण आप महोपाध्याय पद से विभूषित हुए। लाभग ८० वर्ष की आयु में यशस्वी एवं दीर्घजीवन प्राप्त करके मुनि धर्मवर्द्धन ने इहलीला सवरण की। जयसुन्दर,
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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