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________________ • चौबीस तोर्यकर पुराण * अनुचित काम नहीं कर बैठते ? जिस राज्यके लिये भरत और मैने इतनी बिडम्बना की है अन्तमें उसे छोड़कर चला जाना पड़ेगा' इत्यादि विचार कर उन्होंने अपने पुत्र महाबलीके लिये राज्य भार सौंपकर जिन दीक्षा ले ली। वे एक वर्ष तक खड़े खड़े ध्यान लगाये रहे, उनके पैरों में अनेक वन लताएं और सांप लिपट गये थे फिर भी वे ध्यानसे विचलित नहीं हुए। एक वर्षके बाद उन्हें दिव्य ज्ञान केवल ज्ञान प्राप्त हो गया जिसके प्रतापसे वे तीनों कालोंकी बत और तीनों लोकोंको एक साथ जानने और देखने लगे थे। और अन्तमें सबसे पहले मोक्ष धामको प्राप्त हुए। इधर जय क्रोधका वेग शान्त हुआ तब भरत भी बाहुबलीके यिना बहुत दुखी हुए। आखिर उपाय हो क्या था ? समस्त पुरवासी और सेनाके साथ लौटकर उन्होंने अयोध्यामें प्रवेश किया। वहां समस्त राजाओंने मिलकर भरतका राज्याभिषेक किया। और उन्हें सम्राट-राजाधिराज रूपसे स्वीकार किया अब वे निष्कंटक हो कर समस्त पृथ्वीका शासन करने लगे। सम्राट भरतने राज्य रक्षाके लिये समस्त राजाओंको राज-धर्म-क्षत्रिय धर्मका उपदेश दिया था। जिसके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे राजा और प्रजा-सभी लोग सुखी रहते थे । राजा प्रजाकी भलाई करनेमें संकोच नहीं करते थे और प्रजा, राजा की भलाई में प्राण देनेके लिये भी तैयार रहते थे। इस तरह महाराज भरत स्त्री रत्न सुभद्राके साथ नाना प्रकारके भोग भोगते हुए सुखसे समय बिताते थे। एकदिन उन्होंने बिचारा कि “मैंने जो इतनी अधिक सम्पत्ति इकट्ठी की है उसका क्या होगा ? बिना दान किए इसकी शोभा नहीं। पर दान दिया भी किसे जावे मुनिराज तो संसारसे सर्वथा निःस्पृह हैं इसलिये वे न तोधन धान्य आदिका दान ले सकने हैं, न उन्हें देनेकी आवश्यकता भी है। वे सिर्फ भोजनी इच्छा रखते हैं सो गृहस्थ उनकी इच्छा पूर्ण कर देते हैं। हां गृहस्थ धन धान्यका द न ले सकते हैं पर अवती गृहस्थोंको दान देनेसे लाभ ही क्या होगा? इसलिए अच्छा हो जो प्रजामें से कुछ दानपात्रोंका चुनाव किया जावे जो योग्य हों उन्हें दान देकर इस विशाल सम्पत्तिको सफल बनाया जावे। वे लोग दान लेकर आजीविकाकी चिन्ताओंसे निर्मुक्त हो धर्मका प्रचार करेंगे - - - -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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