SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौबीस तीर्थङ्कर पुराण * और पठन पाठनकी प्रवृत्ति करेंगे" यह मोचकर उन्होंने किसी व्रतके दिन प्रजाको राजमन्दिरमें आनेके लिए आमन्त्रित किया बुलाया और राजमन्दिरके रास्तेमें हरी हरी दूध लगवा दी जय प्रजाके व्रतधारी मनुष्यों ने द्वार पर पहुंच. कर वहां हरी दूब देखी तय वे अपने व्रतकी रक्षाके लिए वहींपर खड़े रह गये। पर जो अव्रतो थे वे पैरों से दूधको कुचलते हुए भीतर पहुंच गये। भरतने व्रतो मनुष्योंको जो बाहर खड़े हुए थे दूसरे प्रासुक रास्तेसे बुलाकर खूब सत्कार किया। उसी समय व्रती मनुष्यों को भरत महाराजने गृहस्थोपयोगी समस्त किशकाण्ड, सन्स्कार, आवश्यक कार्य आदिका उपदेश देकर यज्ञोपवीत प्रदान किये और जगत्में उन्हें वर्णोत्तम ब्राह्मण नामसे प्रसिद्ध किया। पाठक भूले न होंगे कि पहले भगवान् वृषभदेवने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णकी स्थापना की थी और अब भरतने वर्णोत्तम व्राह्मण वर्णकी स्थापना की है। इस तरह सृष्टिकी लौकिक और धार्मिक व्यवस्थाके लिए चार वर्णाकी स्थापना हुई थी। भरतने ब्राह्मणों के लिए अनेक वस्त्राभूषा पदान किए और उनकी आजीविकाके समुचित प्रबन्ध कर दिए। धीरे धीरे ब्राह्मणोंकी सख्या बढ़नी गई । वे आजीविका आदिकी चिन्तामें निर्मुक्त हो स्वतन्त्र चित्तसे शास्त्रोंका अध्ययन करते और जैनधर्मका प्रचार करते थे। वर्णव्यवस्थाका उल्लंघन न हो, इस घातका सम्राट् बहुत ख्याल रखते थे। उस समय क्षत्रिय प्रजाका पालन करते थे, वैश्य व्यागरके द्वारा सबको आर्थिक चिन्ता दूर करते, शूद्र एक दूसरेकी सेवा करते और ब्राह्मण पठन पाटन हा प्रचार करते थे। कोई अपने अपने कर्मों में व्यतिक्रम नहीं करने पाते थे इसलिए सब लोग सुख शान्तिसे जोवन व्यतीत करते थे। एक दिन भरत महाराजने रात्रिके पिछले पहरमें कुछ अद्भुत स्वप्न देखे जिससे उनके चित्तमें बहुत कुछ उद्वेग पैदा हुआ। स्वप्नोंका निश्चित फल जाननेके लिए उन्होंने किसी औरसे नहीं पूछा, वे सीधे जगत्पूज्य भगवान आदिनाथके समवसरणमें पहुंच। वहां उन्होंने गन्ध कुटीमें विराजमान जगद्गुरुको भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और जल चन्दन आदिसे उनकी पूजा की पूजा कर चुकने के बाद भातने पूछा 'हे त्रिभुवन गुरो ! धर्म मार्गके प्रवर्तक आपके रहते हुए भी मैंने अपनी मन्दनासे एक ब्राह्मग वर्णकी सृष्टि की है
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy