SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौबीस तीर्थङ्कर पुराण * ७६ AdSHEETTES - - K - प्राणी चक्रवर्तीके अनुयायी न बन जावे तब तक वह लौटकर नगग्में प्रवेश नहीं करता पुरोहितके वचन सुनकर चक्रवर्तीने अनेक उपहारों के साथ अग्ने भाइयों के पास चतुर दून भेजे और उन्हें अपनी आधीनता स्वीकार करनेके लिये प्रेरित किया। भरतके भाइयोंने ज्योंही दूनोंके मुख़से उनका सन्देश सुना त्योंहो उन्होंने संतारसे विरक्त होकर राज्य तृष्णा छोड़कर दीक्षा लेना अच्छा समझा और निश्चय के अनुमार दीक्षा लेने के लिये भगवान् आदिनाथ के पास चले भी गये । इन्होंने लौटकर भरतजी से सब समाचार कह सुनाये । भाईयोंके विरहसे उन्हें चिन्ता हुई तो अवश्य, किन्तु राज्य लिप्सा भी कोई चोज है ? उसके वशीभूत होकर उनने आने हृदय में बन्धु विरहको अधिक स्थान नहीं दिया। फिर उन्होंने अपनी दूसरी मा सुनन्दाके पुत्र बाहुबलीके पास एक चतुर दून भेजा। उत्त समय बाहुबली पोदनपुरके राजा थे वह दूत क्रम क्रमसे अनेक देशोंको लांचना हुआ पोदनपुर पहुंचा और वहां द्वारपालके द्वारा राजा बाहुवलीके पास आनेकी खबर भेजकर राज सभामें पहुंचा। वहां एक ऊंचे सिंहासन पर बैठे हुए बाहुबलीको देखकर इनके मनमें संशय हुआ कि 'यह शरीर धारी अनङ्ग है ? मोहनी आकृतिसे युक्त वसन्त है ? मूर्तिधारी प्रताप है ? अथवा घाम तेजका समूह है ?' दूतने उन्हें दूरसे हो न:स्कार किया । बाहुबलोने भी बड़े भाई भरतके राजदूतका यथोचित सत्कार किया। कुछ समय बाद जब उन्होंने उससे आनेका कारण पूछा तब वह बिनोत शब्दोंमें कहने लगा-'नाथ ! राज राजेश्वर भरत जो कि भारतवर्ष की छह खण्ड बसुन्धरा को जीतकर वापिस आये हैं, उन्होंने राजधानी अयोध्यासे मेरे द्वारा आपके पास सन्देशा भेजा है-'प्यारे भाई ! यह विशाल राज्य तुम्हारे बिना शोभा नहीं देता इस लिये तुम शीघ्रहो आकर मुझसे मिलो । क्योंकि राज्य वही कहलाता है जो समस्त बन्धु बन्धुओंके भोगका कारण हो । यद्यपि मेरे चरण कमलों में समस्त देव विद्याधर और सामान्य मनुष्य भक्तिसे मस्तक झुकाते हैं नथापि जब तक तुम्हारा प्रताप मय मस्तक उनके पास मन ल मराल-मनोहर हंसको भांति आचरण नहीं करेगा तब तक उनकी शोभा नहीं इसके अनन्तर महाराजने यह भी कहला मेजा है कि 'जो कोई --rastainm e - - - - - - - -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy