SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौवीस तीथकर पुराण प्रसन्न होकर नमि राजाने उनके साथ अपनी सुभद्रा नामकी बहिनकी शादी कर दी । अनवद्य सुन्दरी सुभद्राको पाकर चक्रवर्तीने अपना समरत परिश्रम सफल समझा । इतने में सेनापति जयकुमार प्राच्य खण्डोंको जीतकर वापिस आ गया । अब सब सेना और सेनापति के साथ चक्रवर्ती भरत, खण्ड प्रपात नामक गुहा में घुसे। वहां नाव्य माल नामके देवने उनका वृत्र सत्कार किया तथा अनेक वस्त्राभूषण दिये । गुहा पार करनेके बाद क्रम क्रमसे भरत महाराज कैलाश गिरि पर पहुंचे वहां उन्होंने कुछ दिनों तक विश्राम किया । कैलाशकी गगन चुम्बी धवल शिखरोंने भरत राजके हृदय पर अपना अधिकार जमा लिया था। वहांका प्राकृतिक सौन्दर्य देखते हुए उनका जी उसे छोड़ना नहीं चाहता था । यही कारण था कि वहां पर कथानायक भगवान् वृषभदेव समवसरण सहित कई बार पहुंचे और भरतने आगे चलकर तीर्थंकरोंके सुन्दर सन्दिर बनवाये | ७८ कैलाशसे लौटकर सम्राट् भरतने राजधानी अयोध्याकी ओर प्रस्थान किया और कुछ प्रयाण ( पड़ाव ) तय करनेके बाद अयोध्यापुरीको वापिस आ गये । दिग्विजयी भरतके स्वागत के लिये अयोध्या नगरी खूब सजाई गई थी समस्त नगर वासी और आस पासके बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा उनकी अगवानी के लिये गये थे । अपने प्रति प्रजाका असाधारण प्रेम देखकर भरतजी चहुत प्रसन्न हुए । वे सब लोगों के साथ अयोध्यापुरीमें प्रवेश करनेके लिये चले सब लोगों के आगे चक्ररत्न चल रहा था । चक्रवर्तीका जो सुदर्शन चक्र भारतवर्षको छह खण्ड बसुन्धरामें उनकी इच्छा के विरुद्ध कहीं पर नहीं रुका था वह पुरीमें प्रवेश करते समय वाह्यद्वार पर अचानक रुक गया । यक्षोंके प्रयत्न करने पर भी जब चक्ररत्न तिल भर भी आगे नहीं बढ़ा तव चक्रवर्तीने विस्मित होकर पुरोहितसे उसका कारण पूछा। पुरोहितजीने निमित्त ज्ञानसे जानकर उसका कारण बतलाया कि "अभो आपको अपने भाइयोंको वशमें करना बाकी है - जब तक आपके सब भाई आपके आधीन न हो जावेंगे तब तक चक्ररत्नका नगरमें प्रवेश नहीं हो सकता क्योंकि इस दिव्य शस्त्रका ऐसा नियम है कि जब तक छह खण्डके समस्त
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy