SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ * चौबीस तोथङ्कर पुराण * - दीक्षा लेते समय वृषभदेवने जो केश उखाड़ कर फेंक दिये थे इन्द्र उन्हें रत्नमयी पिटारीमें रखकर क्षीर सागर ले गया। और उसकी तरल तरङ्गोंमें विनय-पूर्वक छोड़ आया था। जिनेन्द्रके नया कल्याणकका उत्सव पूराकर समस्त देव देवेन्द्र अपने स्थान पर चले गये । बाहुबली आदि राजपुत्र भी पितृ वियोगसे कुछ खिन्न होते हुए अयोध्यापुरी को लौट आये। वन में भगवान आदिनाथ छह महीनाका अनशन धारणकर एक आसनसे बैठे हुए थे। धूप, वर्षा, शीत आदिकी बाधाएं उन्हें रंच-मात्र भी विचलित नहीं कर सकी थीं। वे मेरके समान अचल थे, बालकके समान निर्विकार थे, निर्मघ आकाशकी तरह शुद्ध थे, साक्षात् शरीरधारी शमके समान मालूम होते थे। उनकी दुनिट नासाके अग्र भाग पर लगी हुई थी हाथ नीचेको लटक रहे थे, और मुहके भीतर अन्यत्र रूपसे कुछ मन्त्राक्षरों का उच्चारण हो रहा था । कहनेका मतलब यह है कि वे समस्त इन्द्रियों को बाह्य व्यापारसे हटाकर अध्यात्म की ओर लगा चुके थे। अपने आप उत्पन्न हुए अलौकिक आत्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। न उन्हें भूखका दुःख था, न प्यासका कष्ट था, और न राज्य कार्य की ही कुछ चिन्ता थी। उधर मुनिराज. वृषभदेव आत्मध्यानमें लीन हो रहे थे और इधर कच्छ महाकच्छ आदि चार हजार राजा, जो कि देखा देखी ही मुनि बन बैठे थेमुनि मार्गका कुछ रहस्य नहीं समझ सके,कुछ दिनों में ही भूख प्यासकी बाधाओं से तिलमिला उठे। वे सब आपसमें सलाह करने लगे-कि 'भगवान् वृषभदेव न जाने किस लिये नग्न दिगम्बर होकर बैठे हैं । ये हम लोगोंसे कुछ कहते ही नहीं हैं । न इन्हें भूख प्यासकी बाधा सताती है, न ये धूप, वर्षा, शर्दीसे ही दाखी होते हैं। पर हम लोगोंका हाल तो इनसे बिल्कुल उल्टा हो रहा है। अब हमसे भूख प्यासकी बाधा नहीं सही जाती। हमने सोचा था कि इन्होंने कुछ दिनोंके लिये हो यह वेष रचा है , पर अब तो माह दो माह हो गये फिर भी इनके रहस्यका पता नहीं चलता। जो भी हो, शरीरकी रक्षा तो हम लोगों को अवश्य करनी चाहिये । और अब इसका उपाय क्या है ? यह चलकर उन्हीं से पूछना चाहिये " ऐसी सलाहकर सब राजमुनि, मुनिनाथ भगवान् वृषभदेव ORAT
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy