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________________ * चौबीस तीर्थदर पुराण * ५६ RANDARATHeerocre e - । के पास जाकर तरह तरहके शब्दों में उनकी स्तुति करने लगे--उनकी धीरता की प्रशंसा करने लगे। स्तुति कर चुकनेके बाद उन्होंने मुनि वेप धारण करनेका कारण पूछा , उसकी अवधि पूछी और 'हम भूख प्यासका दुःख नहीं सह सकते, यह प्रकटकर उसके दूर करनेका उपाय पूछा । पर वे तो मौन व्रत लिये हुए थे, आत्मध्यानमें मस्त थे, उनकी दृष्टि बाह्य पदार्थासे सर्वथा हट गई थी-वे कुछ न बोले। जब उन्हें वृषभदेवकी ओरसे कुछ भी उत्तर नहीं मिला, उन्होंने आंख उठाकर भी उन लोगोंकी ओर नहीं देखा तब वे बहुत घबड़ाये और मुनि मार्गसे भ्रष्ट होकर जंगलोंमें चले गये। उन्होंने सोचा था कि यदि हम अपने अपने घर वापिस जाते हैं तो राजा भरत हमको दण्डित करेगा इसलिये इन्हीं सघन वनों में रहना अच्छा है । यहां वृक्षोंके कन्द, भूल फल खाकर नदी तालाब आदिका मीठा पानी पीवेंगे और पर्वतोंकी गुफाओं में रहेंगे अब ये शेर, चीते, वगैरह ही हम लोगोंके परिवार होंगे, इस तरह भ्रष्ट होकर वे चार हजार द्रव्य लिङ्गी मुनि ज्योंहो तालावोंमें पानी पीनेके लिये घुसे त्योंही उन देवताओंने प्रकट होकर कहा कि यदि तुम दिगम्बर मुद्रा धारण कर ऐसा अन्याय करोगे तो हम तुम्हें दण्डित करेंगे। यह सुनकर किन्हींने वृक्षोंके पत्ते व वकाल पहिनकर हाथमें पलाश वृक्षके दण्ड ले लिये। किन्हींने शरीरमें भस्म रमाली और किन्हींने जटायें बढ़ालीं। कहने का मतलब यह है कि उन्हें जिसमें सुविधा दिखी वही वेष उन्होंने धारणकर लिया। इतना होने पर भी वे सब लोग भगवान आदिनाथके लिये ही अपना इष्ट देव समझते थे, उन्हें सिंह और अपनेको सियार समझते थे वे लोग प्रतिदिन तालावों में से कमलके फूल तोड़कर लाने थे और उनसे भगवान की पूजा किया करते थे। वृषभदेवको बाह्य जगतका कुछ ध्यान नहीं था। वे समताभावोंसे क्षुधा तृषाकी बाधा सहते हुए आत्मध्यानमें लीन रहते थे। जिस बनमें महामुनि वृषभेश्वर ध्यान कर रहे थे उस बनमें जन्म विरोधी जीवोंने भी परस्पर का विरोध छोड़ दिया था-सिंहनी गायके बच्चेको प्यारसे दूध पिलाती थी और गाय सिंहनीके बच्चेको प्रेमसे पुचकारती थी, मृग और सिंह परस्परमें खेला करते थे, सर्प, नेवला, मोर आदि विरोधी जीव एक दूसरेके साथ क्रीड़ा किया राममाया - - -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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