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________________ 214 'अ.' का विधान तथा श्वसुर शब्द के 'उकार 'एवं 'ॐकार' का लोप विधान करता है। यह जो 'अकार' के लोप का विधान है वह सन्निहित होने से 'अन्त्य ॐ कार" का ही लोप होगा 'ITE अकार' का नहीं। अतएव 'वसुर: प्रववा' यह निर्देश सहगत होता है / इसका उदाहरण है - श्वसुर की स्त्री वसुर: स्त्री। 'श्वभूः' / 'श्वसुर' शब्द से 'ह' करने पर 'अन्त्य अकार' का तथा 'मध्य उकार' का लोप करने पर 'श्वभूः' यह प्रयोग बनता है / 'उहन्त' प्रवधू शब्द यद्यपि अप्रातिपदिक है तथापि 'श्वसुरः श्ववा' इस निर्देश से विभक्त्या दि की उत्पत्ति हो जायेगी ऐसा हरदत्त' का मत है / प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इसके द्वारा भी विभक्त्यादि कार्य हो जायेंगे ऐसा भी समाधान किया जाता है / . वस्तुतः यह वार्तिक अपूर्ववचन नहीं है तथापि 'श्वसुरः श्ववा' इस निर्देश से सिद्ध अर्ध का अनुवादमात्र ही है। ऐसा न्यास एवं मनोरमा में स्पष्ट उल्लेख है। 'इया प्रातिपदिकात्' इस सूत्र के भाष्य से यह प्रतीत होता है कि --------- 1. 'श्वशरः श्वश्रवा' इत्यादिनिपातनाद्विभक्त्यादिप्रातिपदिककार्य भवति / पदम जरी, 4/1/68. 2. अयं तु 'श्वशुर : श्वश्रवा' इतिनियतनादेव सिदइति न वक्तव्यः / न्यास, 4/1/68. 3. एतच्च 'श्वशुर श्ववा' इति निर्देश सिद्वार्थकथमपरम् / प्रोट मनोरमा, स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम् /
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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