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________________ 213 मटी जिदीक्षित ने 'मत्त्यस्यड्याम्' ऐसा ही पाठ किया है । वार्तिक का यही स्वरूप आचार्य वरदराज ने भी स्वीकार किया है । वार्तिककार ने 3 के प्रदर्शन के लिए लान का अनादर करते हुए पूर्ववार्तिक में भी सूर्य शब्द का ग्रहण किया। प्रदीप में यह स्पष्ट रूप से व्याख्यात है। इस वार्तिक से तथा अन्य वक्ष्यमाण वार्तिक से 'सूर्यतिघ्यागस्त्य' इस सूत्र से विहित लोपविष् का परिगणन किया जाता है । 'सूर्यतिष्य' इस सूत्र में 'भस्य' तद्विते, हाति' इतने पदों की अनुवृत्ति होती है अतः इसका अर्थ होता है सूर्यादि के उपधाभूत यकार का लोप होता है इंकार तद्वित परे रहते । यह 'यलोप' परिगणितविष्य से अन्यत्र न हो अत: इन वार्तिकों का आरम्भ है। इनमें इस वाति का । 'मत्स्यस्य झ्याम्'। अर्थ है - 'मत्स्यशब्द ' के 'उपधाभूत यकार' का । 'डी' परे रहते ही हो, अन्यत्र नहीं। उदाहरण है 'मत्सी'। मत्स्य शब्द गौरादित्वात्' डीप' तदनन्तर इस वार्तिक से 'यलोप' । परिगणन कर दे से 'मत्स्यस्यायं' इप्त अर्थ में 'मात्स्यः इस प्रयोग में 'यलोप' नहीं होता है प्रवसुरस्योकाराकारलोपश्च 'पड्गोश्च 2 इस सूत्र में यह वार्तिक वार्तिकार ने, पढ़ा है परन्तु भाष्य में यह उपलब्ध नहीं होता। इस वार्त्तिक से 'श्वसुर' शब्द से पुयोर 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1038. 2. Ascाध्यायी, 4/1/68.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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