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________________ जयमती। ६७ पहुँचती रहे । जबतक यह अपने पति का पता न बतलावे, तबतक बराबर इसे "इसी प्रकारकी शास्ति देते रहो-जैसे बने तैसे इससे गदापाणिका पता पूछ लेना है।" मूढ राजाने अपने क्षुद्र, दुर्बल और पशुहृदयको आदर्श मानकर संसारके समस्त मानवहृदयोंका अनुमान किया था। उसने सोचा था कि जयमती बेतोंकी मारके कष्टसे अपने पतिका पता बतला देगी। किन्तु दिनपर दिन जाने लगे, . जयमतीने असह्य अत्याचारोंको सहन करके भी गदापाणिके सम्बन्धमें एक शब्द भी ओठोंसे बाहर न निकाला । देशकी सारी प्रजा राजाके पैशाचिक अत्याचारको देखती हुई जयमतीके लिए चुपचाप आँसू बहाने लगी। उस समय देशमें शक्तिशाली पुरुषोंका अभाव था, मंत्रीगण भी आपसी कलहके कारण दुर्बल हो रहे थे, अतएव राजाके अत्याचारका निवारण नहीं हो सका। जयमतीके ऊपर जो अत्याचार हो रहा था, उसका समाचार क्रमसे नागापर्वतपर गदापाणिके कानोंतक भी पहुँच गया । उसे सुनते ही वे लराराजाकी 'पापपुरीकी ओर चल पड़े और वेष छुपाकर जयमतीके पास आकर बोले:"राजकुमारी, तू व्यर्थ ही क्यों इतना कष्ट सहन कर रही है ? स्वामीका पता बतलाकर इस यातनासे अपना पिंड क्यों नहीं छुड़ा लेती ?" जयमती उस समय नेत्र बन्द किये हुए ईश्वरका और स्वामीके चरणोंका ध्यान करती हुई चुपचाप बेत खा रही थी। इसलिए गदापाणिकी बात उसके कर्णगोचर न हुई । गदापाणि इसके पश्चात् एक बार फिर जयमतीके पास आकर बोले:"हे देवी, स्वामीका पता बतलाकर अपनी छुट्टी क्यों नहीं करा लेती ? व्यर्थ कष्ट पानेसे क्या लाभ है ?" अबकी बार जयमतीने गदापाणिको देख लिया और पहचान भी लिया। वह शंकित-चित्त होकर सोचने लगी—जिसके लिए इतना कष्ट और इतना अपमान सहन कर रही हूँ और जिसकी रक्षाके लिए मैंने अपना जीवन भी उत्सर्ग कर दिया है, वह यदि यहाँ स्वयं ही आकर अपने को पकड़ा देगा, तो सब ही व्यर्थ गया समझना चाहिए । जयमतीको रुलाई आ गई। असहनीय अत्याचार और पीड़नसे जिसकी शान्ति नष्ट न हुई थी, घोरतर वेत्राघातसे जर्जरित होकर भी जो प्रशान्त मूर्ति धारण करके स्वामीके पवित्र चरणोंका ध्यान करती हुई दिन काटती थी, उसका अबकी बार धैर्य च्युत हो गया । मेरा सारा ही उद्देश्य विफल हो गया, यह देखकर वह अस्थिर हो उठी और बोली-“जब मैं कई बार कह चुकी हूँ कि मैं अपने स्वामीका पता कभी
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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