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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज किन्तु विज्ञान कहता है कि शक्तिका नाश नहीं होता, केवल स्थानान्तर और रूपान्तर होता है। चंचला लक्ष्मीकी अचंचला सखी 'सलाम-शक्ति' पिताके कंधेसे उतरकर पुत्रके कंधेपर श्रारूढ़ हो गई और नवेन्दुका नवीन मस्तक लहरोंसे टकराते हुए कहके समान अँगरेज़ कर्मचारियोंके द्वारपर बिना विश्राम लिये उठने और गिरने लगा। पहली स्त्रीके निस्संतान अवस्थामें मर जानेपर जिस परिवारमें इन्होंने दूसरा विवाह किया, उसका इतिहास एक नये ही ढंगका है। उस परिवारके बड़े भाई प्रमथनाथ परिचित जनोंकी प्रीति और कुटुम्बी जनोंके श्रादरके स्थल थे। घरके और अड़ोस-पड़ोसके लोग उनको सब विषयों में अनुकरणीय समझते थे। प्रमथनाथ विद्यामें बी० ए० और बुद्धिमें विचक्षण थे, किन्तु बड़ी तनख्वाह और कलमके जोरकी कोई परवा न करते थे। उनके पास बड़प्पनका बल भी अधिक नहीं था ; क्योंकि अँगरेज लोग उन्हें जितना दूर रखते थे, वे भी उनसे उतनी ही दूर रहकर चलते थे । अतएव अपने घरके कोने और परिचित जनोंमें ही वे जगमगाते थे। दूरके लोगोंकी दृष्टि आकर्षित करनेकी कोई शक्ति उनमें नहीं थी। __ यही प्रमथनाथ एक बार विलायत गये, वहाँ लगभग तीन वर्ष तक घूमघाम कर लौट आये और अँगरेजोंके सौजन्यपर मुग्ध होकर भारतवर्षके सारे अपमानों और दुःखोंको भूलकर अँगरेजी ठाट-वाटसे रहने लगे। ___ पहले पहल उनके इस ठाटसे भाई बहन कुछ कुण्ठितसे हुए, परन्तु कुछ ही दिनोंके बाद वे भी कहने लगे-भैयाको अँगरेजी कपड़े जितने अच्छे मालूम होते हैं, उतने और किसीको नहीं मालूम होते । इस तरह धीरे धीरे अँगरेजी वस्त्रोंका गौरव-गर्व उस परिवारमें स्थायी हो गया ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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