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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मान लीं ; और मेरे मस्तकमें उनके सिवाय जो अनेक अच्छी अच्छी युक्तियाँ इकट्ठी हो रही थीं उनके प्रकट करनेका उसने अवकाश ही नहीं दिया ! कोई एक सप्ताह बाद नवीनने आकर कहा - यदि तुम सहायता दो, तो मैं स्वयं विधवाविवाह करनेके लिए तैयार हूँ । यह सुनकर मैं उछल पड़ा और नवीनको गले लगाकर बोलाइस कार्य में जो कुछ खर्च होगा, मैं अपने पाससे दूँगा । तब नवीनने अपना सारा इतिहास सुनाया । मालूम हुआ कि उसकी प्रियतमा काल्पनिक नहीं है । कुछ दिनोंसे वह एक विधवाको दूरसे ही चाहने लगा है । यह बात उसने अब तक किसीपर प्रकट नहीं होने दी है। जिन मासिक-पत्रों में नवीनकी - अर्थात् मेरी — कविता प्रकाशित होती है, वे सब जहाँ चाहिए, वहाँ जाकर पहुँच जाते हैं। वे कविताएँ व्यर्थ भी नहीं गई । बिना मिले - जुले चित्त आकर्षित करने का यह एक नया उपाय मेरे मित्रने आविष्कृत कर डाला है । I किन्तु नवीनका कथन है कि उसने षड्यंत्र रचकर यह चालाकी नहीं की। बल्कि उसका विश्वास था कि उक्त विधवा लिखना पढ़ना भी नहीं जानती । विधवा के भाईके नाम बिना मूल्य और बिना अपनी सहीके जो मासिक पत्र भेजे जाते थे सो केवल अपने मनको सान्त्वना देनेके लिए ! इसे एक तरहका पागलपन ही समझना चाहिए। उन्हें भेजते समय नवीन सोच लेता कि देवताके उद्देश्यसे पुष्पाञ्जलि छोड़ दी गई, अब वे चाहे जानें चाहे न जानें, और चाहे ग्रहण करें चाहे न करें । विधवा के भाई के साथ किसी न किसी बहानेसे नवीनने जो मित्रता
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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