SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रवीन्द्र कथाकुञ्ज रहेगा और उसके सम्बन्धका तर्क भी कभी समाप्त न होगा; परन्तु जीवन बहुत ही थोड़ा है और उसमें मिलनेवाला शुभ अवसर दुर्लभ और क्षणस्थायी है । मैंने किरणकी बातका कोई उत्तर नहीं दिया और कहा-मैं आज आपको कुछ कविताएँ सुनाऊँगा। किरणने कहा-कल सुनूँगी। इतना कहकर वह चटपट उठ खड़ी हुई और कमरेकी ओर देखकर बोली-बाबूजी, महीन्द्र बाबू आये हैं । नींद टूट जाने से भवनाथ बाबू बालकोंकी भाँति अपने सरल नेत्र खोलकर मानो कुछ व्यस्त हो गये। मेरे कलेजेपर मानों धकसे बहुत तेज चोट लगी। मैं भवनाथ बाबूके कमरेमें जाकर अनन्त आकाशके सम्बन्धमें तर्क करने लगा और किरण वह किताब हाथमें लेकर शायद उसे निर्विघ्न रूपसे पढ़ने के लिए दूसरी मंजिलके अपने निर्जन सोनेके कमरेमें चली गई। दूसरे दिन सबेरे डाकसे स्टेट्समैन अखबारकी एक प्रति मिली, जिसपर लाल पेन्सिलसे निशान किया हुआ था और जिसमें बी० ए० की परीक्षाका फल प्रकाशित हुआ था । सबसे पहले मेरी दृष्टि पहले डिविजनके खाने में किरणबाला चन्द्योपाध्यायके नामपर पड़ी । पर स्वयं मेरा नाम पहले, दूसरे या तीसरे, किसी भी डिवीजनमें, नहीं मिला। ___ परीक्षामें अकृतार्थ होनेकी जो वेदना थी, वह तो थी ही ; उसके साथ ही साथ वज्राग्निकी भाँति एक और सन्देह मुझे जलाने लगा । वह सन्देह यह था कि वह किरणबाला वन्द्योपाध्याय, हो न हो, मेरी ही किरणबाला है । यद्यपि उसने मुझसे यह बात कभी नहीं कही थी कि मैंने कालिजमें शिक्षा पाई है, परन्तु फिर भी मेरा यह सन्देह धीरे धीरे प्रबल होने लगा। कुछ देर तक सोचनेपर मैंने उसका कारण समझ लिया । बात यह थी कि वृद्ध पिता और उनकी कन्याने कभी अपने सम्बन्धमें कोई भी बात न कही थी। और मैं भी सदा अपनी ही कहानी कहने और अपना ही विद्या-बल दिखलानेमें इतना अधिक नियुक्त रहता
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy