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________________ अध्यापक आकाशमें अपनी हृदय-तरणीके पालको केवल एक ही उत्तप्त दीर्घ निश्वाससे भरकर बहुत दूरके नक्षत्र लोकमें भेजी है। मैं यह तो नहीं जानता कि शेलीने वह कविता किसके लिए बनाई थी ; पर हाँ, इसमें सन्देह नहीं कि महीन्द्रनाथ नामक किसी बंगाली युवकके लिए नहीं बनाई थी। फिर भी मैं जोर देकर यह बात कह सकता हूँ कि आज इस स्तवगानपर मेरे सिवा और किसीका अधिकार नहीं हो सकता। किरणने उस कविताके पास ही अपनी अन्तरतम हृदय-पेन्सिलसे एक लाल निशान लगा दिया था। उस स्नेह-वेष्टनीके मोह मन्त्रसे वह कविता अाज उसीकी थी और उसके साथ ही साथ मेरी भी थी। मैंने अपने पुलकित चित्तको रोककर सहज स्वरमें पूछा-क्या पढ़ रही हैं ? पालके जोरसे चलती हुई नाव मानो एकाएक किसी चरमें जाकर फंस गई । किरण चौंक पड़ी और उसने वह किताब जल्दीसे बन्द करके अपने आँचलमें छिपा ली। मैंने हँसते हुए पूछा-जरा मैं आपकी पुस्तक देख सकता हूँ ? मानो किरणको कोई बात खटकी । उसने आग्रहपूर्वक कहा-नहीं नहीं, वह किताब रहने दीजिए। मैं कुछ दूर पर एक सीढ़ी नीचे बैठकर काव्य-साहित्यकी बातें कहने लगा । मैंने इस प्रकार बात उठाई कि जिसमें किरणको भी साहित्यकी कुछ शिक्षा मिले और मेरे मनकी बात अँगरेज कविकी जबानी व्यक्त भी हो जाय । उस तेज धूप और गहरी निस्तब्धतामें जल और स्थलके छोटे छोटे कल-कल-शब्द निद्रा-कातर माताकी लोरियोंके समान बहुत ही मृदु और सकरुण हो गये। किरण मानो अधोर हो गई । वह बोली-बाबूजी अकेले बैठे हुए हैं । क्या आप अनन्त आकाशके सम्बन्धका अपना यह तर्क समाप्त न करेंगे? मैंने मन ही मन सोचा कि अनन्त आकाश तो बहुत दिनों तक
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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