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________________ अध्यापक १५३ था कि मैंने उनके सम्बन्धकी बातें कभी उनसे अच्छी तरह पूछी ही नहीं थीं। अभी हाल में मैंने जर्मन विद्वानका लिखा हुआ दर्शन-शास्त्रका जो इतिहास पढ़ा था, उसके सम्बन्धके तर्क मुझे याद आने लगे। यह भी याद आया कि मैंने एक दिन किरणसे कहा था कि यदि मुझे कुछ दिनों तक आपको कुछ पुस्तकें पढ़ानेका सुयोग मिले, तो अँगरेजी काव्य-साहित्यके सम्बन्धमें मैं आपमें एक बहुत अच्छी धारणा उत्पन्न कर सकूँगा। किरणबालाने दर्शन-शास्त्रमें 'पानर' प्राप्त किया था और वह साहित्यमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी। यदि वह यही किरण हो तो? अन्तमें मैंने बहुत खोदकर अपने भस्माच्छन्न अहंकारको उद्दीप्त किया और कहा है, तो हुआ करे । मेरी रचनावली ही मेरी विजयका स्तम्भ है । इतना कहकर मैं पहलेकी अपेक्षा और भी अधिक ऊँचा सिर करके जल्दी जल्दी पैर बढ़ाता हुआ भवनाथ बाबूके बागमें जा पहुंचा। उस समय वहाँ कमरेमें कोई नहीं था। मैं एक बार अच्छी तरह उस वृद्धकी पुस्तकोंका निरीक्षण करने लगा। मैंने देखा कि एक कोनेमें मेरा वही जर्मन विद्वानका लिखा हुआ दर्शनशास्त्रका इतिहास अनादरसे पड़ा हुआ है। खोलकर मैंने देखा कि उस पुस्तकके 'प्रायः सभी किनारे स्वयं भवनाथ बाबूके हाथके लिखे हुए नोटोंसे भरे पड़े हैं । वृद्धने स्वयं ही अपनी कन्याको पढ़ाया है, अब मुझे और कोई सन्देह नहीं रह गया । थोड़ी देरमें भवनाथ बाबू भी उस कमरेमें आ पहुंचे। उस समय उनके चेहरेपर और दिनोंकी अपेक्षा कुछ अधिक प्रसन्नताकी ज्योति दिखलाई देती थी। ऐसा जान पड़ता था कि मानो किसी शुभ समाचारकी निर्भर-धारामें उन्होंने अभी अभी प्रातःस्नान किया है। मैं अक
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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