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________________ १५० रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ज्योतिसे उसके वृद्ध पिताके सफेद बालोंपर पवित्रताकी उज्ज्वल भाभा पड़ी और उसी ज्योतिने मेरे लहराते हुए हृदय-समुद्रकी प्रत्येक तरंगपर एक एक करके किरणके मधुर नामके ज्योतिर्मय अक्षर मुद्रित कर दिये। ___ इधर मेरी छुट्टी समाप्त होनेको आई । पहले विवाहके लिए घर आनेका पिताजीका जो स्नेहपूर्ण अनुरोध था, वह अब धीरे धीरे कठोर आज्ञाके रूपमें परिणत होता हुआ जान पड़ने लगा। उधर अमूल्य भी अब अधिक दिनों तक रोका नहीं जा सकता था। मेरे मनमें इस बातके कारण भी धीरे धीरे प्रबल उद्वेग होने लगा कि कहीं किसी दिन उन्मत्त जंगली हाथीकी भाँति वह मेरे इस पद्मवनमें न आ पहुँचे और अपने बड़े बड़े चारों पैर उसमें न रख दे। अब मैं यही सोचने लगा कि मैं किस प्रकार जल्दीसे अपने मनकी आकांक्षा प्रकट करके अपने प्रणयको परिणयमें विकसित कर लूँ । एक दिन दोपहरके समय मैंने भवनाथ बाबूके घर में जाकर देखा कि वे ग्रीष्मकी धूपमें एक चौकीपर पड़े हुए सो रहे हैं और सामने गंगातटवाले बरामदेमें निर्जन घाटकी सीढ़ियोंपर बैठी हुई किरण कोई पुस्तक पढ़ रही है। मैंने चुपचाप पीछेसे जाकर देखा कि वह कविताओंका एक नवीन संग्रह है। उसका जो पृष्ट खुला हुआ था, उसमें अँगरेज कवि शेलीकी एक कविता उद्धत थी और उसके बगलमें लाल स्याहीसे एक लकीर खींची हुई थी। उस कविताको पढ़कर किरणने एक ठंडा साँस लिया और स्वप्नके भारसे आकुल दृष्टि से अाकाशके दूरतम प्रान्तकी ओर देखा। ऐसा जान पड़ता था कि उस एक कविताको किरण आज एक घंटेमें दस बार पढ़ चुकी है और वही कविता उसने अनन्त नीले
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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