SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज १३४ बच गया; और जो कुछ देखना था, वह मैंने जामुनके उन दो वृक्षोंकी आड़ में खड़े होकर देख लिया । मनुष्य के जीवन में इस प्रकारका दृश्य केवल एक ही बार दिखाई देता है; दोबारा नहीं दिखाई देता । मैंने संसार में आकर बहुत-सी चीजें नहीं देखी थीं। आज तक मैं कभी जहाजपर नहीं चढ़ा था, कभी बेलूनपर भी नहीं चढ़ा था । कोयलेकी खान में भी कभी नहीं उतरा था । परन्तु स्वयं अपने मानसी आदर्शके सम्बन्धमें अब तक जो मैं बिलकुल भ्रान्त और अनभिज्ञ था, उसका इस उत्तर ओरवाले बरामदे में आने से पहले कभी मुझे सन्देह भी नहीं हुआ था | मेरी अवस्था इक्कीस वर्षसे ऊपर हो चुकी है । मैं यह तो नहीं कह सकता कि इससे पहले मैंने अपने अन्तःकरण में कल्पनाके बलसे स्त्रियों के सौन्दर्यकी एक ध्यान-मूर्त्तिका सृजन नहीं किया था - उस मूर्त्तिको मैंने अनेक वेश-भूषाओं से सज्जित और अनेक अवस्थाओं के मध्य में स्थापित किया था; परन्तु हाँ, कभी स्वप्न में भी इस बातकी आशा नहीं की थी कि उसके पैरों में जूते, शरीरपर कोट और हाथमें पुस्तक देखूँगा । इस प्रकारका वेश देखनेकी मैंने कभी इच्छा भी नहीं की थी । परन्तु मेरी लक्ष्मीने फाल्गुन मासके अन्त में, तीसरे पहरके समय, बड़े बड़े वृक्षोंके हिलते हुए घने पत्तोंके वितान के नीचे, दूर तक फैली हुई छाया और प्रकाशकी रेखासे अंकित पुष्पवन के पथमें, पैरों में जूते और शरीरपर कोट पहनकर, हाथमें पुस्तक लिये हुए जामुनके दो वृक्षोंकी से अकस्मात् मुझे दर्शन दिए । मैंने कोई बात नहीं कही । दो मिनट से अधिक और दर्शन नहीं हुए । मैंने अनेक छिद्रों में से देखने की अनेक चेष्टाएँ कीं, पर कुछ भी फल न हुआ । उसी दिन सन्ध्यासे कुछ पहले मैं वट वृत्तके नीचे पैर पसारकर बैठा । मेरी श्राँखों के सामने उस पारके घने वृक्षोंकी श्रेणीके ऊपर सन्ध्या-तारा प्रशान्त स्मितहास्य करता हुआ उदित हुआ; और देखते देखते
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy