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________________ अध्यापक १३१ सन्ध्याश्री अपने नाथहीन विपुल निर्जन वासरगृहका द्वार खोलकर चुपचाप खड़ी हो गई । मैंने उसके हाथमें जो पुस्तक देखी, वह मेरे लिए एक नवीन रहस्यका निकेतन हो गई। मैं सोचने लगा कि वह कौन-सी पुस्तक थी ? उपन्यास था या काव्य ? उसमें किस प्रकारकी बातें थीं ? उस समय उस पुस्तकका जो पृष्ट खुला हुआ था और जिसपर वह तीसरे पहरकी छाया और सूर्य की किरणें, उस वकुल वनके पत्तों की मरमराहट और दोनों आँखों औत्सुक्यपूर्ण स्थिर दृष्टि पड़ रही थी, उस पृष्ठ में कथाका कौन-सा अंश, काव्यका कौन-सा रस प्रकाशित हो रहा था ? साथ ही मैं यह भी सोचने लगा कि उन घने खुले हुए बालोंकी अन्धकारपूर्ण छायाके नीचे, सुकुमार ललाट-मंडप के अन्दर, विचित्र भावोंका आवेश किस प्रकार अपनी लीला दिखला रहा था। उस कुमारी हृदयी निभृत निर्जनतापर नई नई काव्य- माया कैसे अपूर्व सौन्दर्य के आलोकका सृजन कर रही थी। इस समय मेरे लिए स्पष्ट शब्दों में यह प्रकट करना सम्भव है कि उस आधी रात तक मैं इस प्रकारकी कितनी और क्या क्या बातें सोचता रहा । पर आखिर मुझसे यह किसने कहा कि वह कुमारी ही थी ? मैंने समझ लिया कि मुझसे बहुत पहले होनेवाले प्रेमी दुष्यन्तको जिसने शकुन्तलाका परिचय होनेसे पहले ही उसके सम्बन्ध में आश्वासन दिया था, उसीने मुझे भी यह बतलाया कि वह कुमारी है । वह मनकी वासना थी । वह मनुष्यको सच्ची झूठी बहुत-सी बातें बतलाया करती है । उनमें से कोई बात ठीक उतरती है और कोई बात ठीक नहीं उतरती । दुष्यन्तसे और मुझसे जो बात कही गई थी, वह ठीक थी। * जिस घर में वर-वधूका प्रथम शयन होता है ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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