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________________ अध्यापक ~~~~~ ~~~~~ ~ एक दिन तीसरे पहर कुछ प्रालस्य आ गया था ; इसलिए मैं स्टेशन नहीं गया और बागमें बने हुए मकानोंके कमरे आदि ही देखने लगा। कोई आवश्यकता नहीं पड़ी थी, इसलिए इससे पहले मैं इनमेंसे अधिकांश कमरों में कभी गया भी नहीं था । बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धमें मुझमें लेश मात्र भी कुतूहल या अभिनिवेश नहीं था । उस दिन केवल समय बितानेके उद्देश्यसे ही मैं उसी प्रकार इधर उधर घूम रहा था, जिस प्रकार हवाके झोंकेसे गिरे हुए पत्ते इधर उधर उड़ा करते हैं । ___ उत्तर ओरके कमरेका दरवाजा खोलते ही मैं एक छोटे बरामदेमें जा पहुँचा । बरामदेके सामने ही बागके उत्तरकी सीमाकी दीवारसे सटे हुए जामुन के दो वृक्ष आमने सामने खड़े हुए थे। उन्हीं दोनों वृक्षोंके बीचसे एक दूसरे बागकी लम्बी वकुल-वीथीका कुछ अंश दिखाई पड़ता था। परन्तु इन सब बातोंपर मेरा ध्यान बादमें गया । उस समय तो मुझे और कुछ देखने का अवसर ही नहीं मिला। उस समय मैंने केवल यही देखा कि प्रायः सोलह वर्षकी एक युवती हाथमें एक पुस्तक लिये हुए है और सिर झुकाए टहलती हुई कुछ पढ़ रही है। _यद्यपि उस समय किसी प्रकारकी तत्त्वालोचना करनेकी शक्ति मुझमें नहीं थी, पर कुछ दिनों के उपरान्त मैंने सोचा कि जब दुप्यन्त बड़े बड़े वाण और शरासन लेकर और रथपर चढ़कर याखेट करनेके लिए वनमें गया था, तब उसके हाथसे कोई मृग तो नहीं मरा था ; परन्तु हाँ, बीचमें दैवात् दस मिनट तक एक वृक्षकी बाड़में खड़े होकर उसने जो कुछ देखा और सुना, वही उसके समस्त जीवनकी देखी और सुनी हुई बातोंसे बढ़ गया । मैं भी पेन्सिल, कलम और कागज लेकर काव्य-मृगयाके लिए बाहर निकला था । बेचारा विश्व-प्रेम तो भागकर
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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