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________________ रवीन्द्र-कथाकुन्ज उसी दिन एक और तुच्छ बातपर सोनामणि और चारुशशिमें भीतरी गाँठ पड़ गई और उसने तारापदकी कोठरीमें जाकर, उसकी वंशी निकालकर, उसपर कूदकूदकर निर्दयतापूर्वक उसे तोड़ना शुरू कर दिया। चार जिस समय बहुत ही क्रोध आकर उस वंशीको तोड़-फोड़ रही थी, उसी समय तारापद वहाँ आ पहुँचा । बालिकाकी यह प्रलयमूर्ति देखकर वह चकित हो गया। उसने पूछा-चारु, तुम मेरी वंशा क्यों तोड़ रही हो ? तुमने यह क्या किया ! चारुने लाल आँखें और लाल मुँह करके कहा-मैंने अच्छा किया ! बहुत अच्छा किया ! इतना कहकर उसने उस टूटी हुई वंशीपर और दो चार बार अनावश्यक पदाघात करके उसका कचूमर निकाल डाला और तब उच्छ्वसित कंठसे रोती हुई वह उस कोठरीसे बाहर निकल गई। तारापदने वह वंशी उठाकर उलट पुलटकर देखी; उसमें कुछ भी दम नहीं रह गया था । अकारण अपनी पुरानी निरपराध वंशीकी यह आकस्मिक दुर्दशा देखकर वह अपनी हँसी न रोक सका । चारुशशि दिनपर दिन उसके लिए परम कुतूहलकी चीज होती जाती थी। उसके लिए कुतूहल का एक और भी क्षेत्र था। मोतीलाल बाबूकी लाइब्रेरीमें अँगरेजीकी बहुत-सी तसवीरदार किताब थीं । बाहरी संसारके साथ तो उसका यथेष्ट परिचय हो चुका था, पर इन तसवीरोंके जगतमें वह किसी प्रकार अच्छी तरह प्रवेश नहीं कर सकता था । वह अपने मनसे कल्पनाके द्वारा उसकी बहुत कुछ पूर्ति कर लिया करता था, पर उससे उसके मनकी कुछ भी तृप्ति नहीं होती थी। तसबीरोंवाली पुस्तकों के प्रति तारापदका इतना अधिक अाग्रह देखकर एक दिन मोतीलाल बाबूने कहा-तुम अँगरेजी पढ़ोगे ? यदि पढ़ लोगे, तो इन सब चित्रोंका मतलब समझने लगोगे ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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