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________________ अतिथि चारुने बहुत विस्तारसे बातें करना प्रारम्भ किया । उसने सोचा था कि मैं तारापद नामक अपने नवीन अर्जित किये हुए परम रत्नके श्राहरणकी बातें बहुत ही विस्तारपूर्वक वर्णन करके अपनी सखीका कुतूहल और विस्मय सप्तमपर चढ़ा दूंगी। पर जब उसने सुना कि तारापद सोनामणि के लिए कुछ भी अपरिचित नहीं है; सोनाकी माँको वह मौसी कहता है और सोनामणि उसे भइया कहती है; जब उसने सुना कि तारापदने केवल वंशी बजाकर ही माता और कन्याका मनोरंजन नहीं किया है, बल्कि सोनामणिके अनुरोधसे उसने अपने हाथसे उसके लिए बाँसकी वंशी भी बना दी है; उसने कई बार उसके लिए ऊँची शाखाओंसे फल और कँटीली शाखाओंसे फूल तोड़ दिये हैं, तब चारुके अन्तःकरणमें जलता हुआ तीर-सा विंधने लगा। चारु समझती थी कि तारापद विशेष रूपसे मेरा ही तारापद है । वह समझती थी कि तारापद बहुत ही गुत रूपसे संरक्षित रखनेकी चीज है। दूसरे लोगोंको उसका थोड़ा बहुत आभास मात्र मिलेगा-उसके पास तक किसीकी भी पहुँच नहीं होगी। सब लोग दूरसे ही उसके रूप और गुणपर मुग्ध होंगे और उसके लिए हम लोगोंको धन्यवाद दिया करेंगे। पर अब वह सोचने लगी कि यह आश्चर्यदुर्लभ दैव-लब्ध ब्राह्मण बालक सोनामणिके लिए क्यों कर सहज-गम्य हो गया ? यदि हम लोग इतने यत्नसे उसे यहाँ न लाते, इतने यत्नसे उसे अपने यहाँ न रखते, तो सोनामणिको उसके दर्शन कहाँसे मिलते ? वह सोनामणिका भाई है ! सुनकर उसका सारा शरीर जल उठा! चारु जिस तारापदको मन ही मन विद्वेषके शरसे जर्जर करनेकी चेष्टा किया करती थी, उसीके एकाधिकार के लिए उसके मनमें इस प्रकारका प्रबल उद्वेग क्यों हुआ?--भला किसकी मजाल है कि यह बात समझ सके !
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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