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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उनकी अपेक्षा श्रेष्ठ और स्वतंत्र वृद्धोंके निकट वह बालक नहीं था, साथ ही वृद्ध भी नहीं था । ग्वालोंके साथ वह ग्वाला, साथ ही ब्राह्मण भी था। सभी लोगोंके समस्त कामोंमें वह पुराने सहयोगीकी भाँति अभ्यस्त भावसे हस्तक्षेप किया करता था। जब वह हलवाईकी दूकानपर बैठकर उससे बातें किया करता था, तब हलवाई कहता थाभइया, जरा बैठे रहना, मैं अभी आता हूँ। उस समय तारापद भी प्रसन्नतापूर्वक दूकानपर बैठा बैठा एक बड़ा-सा पत्ता लेकर मिठाईपरकी मक्खियाँ उड़ाने लगता था । मिठाई बनानेमें भी वह बहुत होशियार था । ताँतीका काम भी कुछ कुछ जानता था और कुम्हारका चाक चलानेसे भी बिलकुल अनभिज्ञ नहीं था । इस तरह तारापदने गाँवके सभी लोगोंको अपना बना लिया था, केवल ग्रामवासिनी एक बालिकाकी ईर्ष्यापर वह अब तक भी विजय नहीं प्राप्त कर सका था । जान पड़ता था कि तारापद इस गाँवमें केवल इसी लिए इतने दिनों तक रह गया था कि वह जानता था कि यह बालिका मुझे किसी दूर देशमें निर्वासित करने की बहुत ही तीन भावसे कामना कर रही है। परन्तु चारुशशिने इस बातका प्रमाण दे दिया कि बाल्यावस्था में भी नारीके हृदयके अन्दरका रहस्य समझना बहुत ही कठिन है। सोनामणि नामकी एक ब्राह्मण-कन्या-जो पाँच वर्षकी अवस्थामें विधवा हो गई थी-चारुकी समवयसी सखी थी। उस समय सोनामणि शरीरसे कुछ अस्वस्थ थी; इसलिए जब चारु लौटकर घर आई थी, तब कुछ दिनों तक वह उससे भेंट करने के लिए न आ सकी थी। जब वह अच्छी हो गई और एक दिन उससे भेंट करनेके लिए आई, तब उसी दिन प्रायः बिना कारण ही दोनों सखियोंमें कुछ मनोमालिन्य होनेका उपक्रम हो गया।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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