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________________ अतिथि १०३ ........... - - - .. . . . उपनदियों के समान शान्ति और सौन्दर्य से पूर्ण वैचित्र्यमेंसे होकर सहज और सौम्य भावसे गमन करते हुए मृदु और मिष्ट कलस्वरसे प्रवाहित होने लगे। किसीको कोई जल्दी तो थी ही नहीं । दोपहरके समय स्नान और भोजन प्रादिमें ही बहुत अधिक बिलम्ब हो जाया करता था। उधर सन्ध्या होते न होते कोई बड़ा-सा वटवृक्ष देखकर किसी गाँवके किनारे घाट के निकट किसी झिल्लीझंकृत और खद्योतखचित वनके पास नाव बाँध दी जाया करती थी। ___ इस प्रकार कोई दस दिनोंमें नाव काँठाल पहुँची । जमींदार आ रहे थे, इसलिए घरसे पालकी और घोड़ा आया था; और हाथ में बाँस की लाठियाँ लिये हुए बरकन्दाजोंके दलने बन्दूकोंकी खाली आवाजोंसे गाँवके उत्कण्ठित कौनोंको इतना अधिक मुखर बना दिया था जिसका कोई ठिकाना ही नहीं था। __ इस समारोहमें कुछ विलम्ब हो रहा था। इस बीचमें तारापद नावपरसे जल्दी उतर कर सारे गाँवका एक चक्कर लगा आया। उसने किसीको भाई, किसीको चचा, किसीको बहिन और किसीको मौसी कहकर दो तीन घंटेके अन्दर ही गाँव भरके साथ सौहार्द-बन्धन स्थापित कर लिया । उसके लिए कहीं कोई प्रकृत बन्धन तो था ही नहीं, इसलिए वह बहुत ही जल्दी और बहुत ही सहजमें सबके साथ परिचय कर लेता था। थोड़े ही दिनोंमें देखते देखते तारापदने गाँवके सभी लोगोंके हृदयोंपर अधिकार कर लिया। ___इतने सहजमें हृदय हरण करनेका कारण यही था कि तारापद सब लोगोंके साथ बिलकुल आपसदारोंकी तरह मिल जुल सकता था। वह किसी प्रकारके विशेष संस्कारके द्वारा तो बद्ध था ही नहीं, पर सभी अवस्थानों में सभी कार्यों के प्रति उसकी एक प्रकारकी सहज प्रवृत्ति हुआ करती थी । बालकों में वह पूर्ण रूपसे स्वभाविक बालक था; परन्तु
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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