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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उसके गीतसे जब नदी-तटकी विश्राम करती हुई ग्रामश्री सन्ध्याके विपुल अन्धकारमें मुग्ध तथा निस्तब्ध हो जाती थी और अन्नपूर्णाका कोमल हृदय स्नेह तथा सौन्दर्य-रससे परिपूर्ण हो जाता था, उस समय चारु सहसा बिछौनेपरसे उठ बैठती थी और जल्ही जल्दी वहाँ पहुँचकर क्रोधपूर्वक रोती हुई कहती थी-माँ, तुम लोगोंने यह क्या बखेड़ा लगा रक्खा है। मुझे नींद नहीं आती। माता पिता उसे अकेली सोनेके लिए भेज देते हैं और तारापदको घेरकर संगीतका आनन्द लेते हैं, यह बात उसे बहुत ही असह्य होतो थी। दीप्त कृष्ण नयनोंवाली इस बालिकाकी स्वाभाविक सुतीव्रता तारापदको बहुत ही अधिक कौतुक-जनक जान पड़ती थी। उसने कथाएँ सुनाकर, गीत गाकर, वंशी बजाकर इस बालिकाको वश करनेकी बहुत चेष्टा की , पर वह किसी प्रकार कृतकार्य न हो सका । हाँ, केवल दोपहरके समय जब तारापद नदीमें स्नान करनेके लिए उतरता था और परिपूर्ण जलराशिमें अपने गौर-वर्ण शरीरसे तरह तरहसे तैरकर तरुण जलदेवताके समान शोभा पाता था, उस समय उस बालिकाका कुतूहल अाकृष्ट हुए बिना नहीं रहता था। वह सदा उसी समयकी प्रतीक्षा किया करती थी। पर फिर भी वह अपना यह अान्तरिक आग्रह किसीपर प्रकट नहीं होने देती थी और मन लगाकर ऊनी गुलूबन्द बुननेका अभ्यास करते करते बीच बीचमें मानो बहुत ही उपेक्षापूर्वक तारापदका तैरना देख लिया करती थी। नन्दीग्राम कब पीछे छूट गया, इस बातकी तारापदने कुछ भी खोज खबर नहीं ली । अत्यन्त मृदु मन्द गतिसे वह बड़ी नाव कभी पाल उड़ाकर, कभी गूनसे खिंचकर नदीकी शाखा प्रशाखाओं से होकर चलने लगी। नावकी सवारियों के दिन भी इन सब नदी और
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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