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________________ प्रथम पद का जाप व उसके अर्थ का चिन्तन साधक को योगियो की उपर्युक्त भावना का अभ्यास करवाने वाला होता है। गति चतुष्टय से मुक्ति एवं अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति नवकार का प्रथम पद 'नमो' सद् विचार का प्रेरक है, 'अरिह' पद सद् विवेक का प्रेरक है एव 'तारण' पद सद्वर्तन का प्रेरक है । सद्विचार, मद्विवेक एव सद्वर्तन ही निश्चयात्मक रूप से रत्नत्रयी है। व्यक्तिनिष्ठ अह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्या चारित्र से युक्त है। यही अह जब समष्टिनिष्ठ बनता है तव सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र युक्त बनता है। व्यवहार से ससारी जीव मात्र कर्मबद्ध है व इसी कारण जन्म-मरण चक्र करता रहता है। निश्चयनय से ऐसी श्रद्धा ज्ञान व तदनुरूप वर्तन होता है कि जीव मात्र अनन्त चतुष्टयवान है, अष्ट कर्म से भिन्न है, तब अह स्वय ही अह रूप वन जन्ममरण रूप चार गति का अन्त करता है। नवकार के प्रथम पद का आराधन, चिन्तन व मनन जीव को मिथ्या रत्नत्रयी से मुक्त कर सम्यक् रत्नत्रयी से युक्त करता है फलस्वरूप अनन्त चतुष्टय से युक्त कर, गति चतुष्टय से मुक्त करता हैं। -- शून्यता-पूर्णता एवं एकता का बोधक नवकार का प्रथम पद पररूपेण नास्तित्वरूप शून्यता का बोधक है, स्वरूपेण अस्तित्वरूप पूर्णता का बोधक है एव उन्नय रूप से युगपत् अवाच्यत्व रूप स्वसवेद्यत्व का बोधक है
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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