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________________ २६ ताणं पद द्वारा आत्मा का परमात्म स्वरूप मे भावन व उसके परिणामस्वरूप रक्षण होता है। तीनो भावो का पृथक्पृथक् वर्णन करते हुए आप श्री कहते है - आतम बुद्धि हो, कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघरूप सुज्ञानी, कायादिकनो हो साखीधर रह्यो, अन्तर आतम रूप सुज्ञानी, सुमति चरण । ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो, . . वरजित सकल उपाधि, सुज्ञानी, अतीन्द्रिय गुणगण मणि आगरू, इम परमातम साध, सुज्ञानी, सुमति चरण ।। काया, वचन, मन आदि को एकान्त आत्मबुद्धि से ग्रहण करने वाला बहिरात्म भाव है व पाप रूप है। वही कायादि का साक्षी भाव अन्तरात्म स्वरूप कहा जाता है व जो परमात्म स्वरूप ज्ञानानन्द से पूर्ण है, सर्व बाह्य उपाधि से रहित है, अतीन्द्रिय गुण समूह रूप मणियो की खान है, उसकी साधना करनी चाहिए। नवकार के प्रथम पद की साधना बहिरात्म भाव को छुड़ाकर अन्तरात्म भाव मे स्थिर कर परमात्म भाव की भावना करवाती है। अत पुन पुन. करने योग्य है। कहा है कि - वाह्यात्मनमपास्य, प्रसत्ति भाजाऽन्तरात्मनायोगी । सततं परमात्मानं, विचिन्तयेत्तन्मयत्वाय ।। योग शास्त्र पृ० १२.श्लो०६ बाह्यात्म भाव का त्याग कर, प्रसन्न अन्तरात्म भाव द्वारा परात्मतत्त्व का विशिष्ट चिन्तन तन्मय होने के लिए योगी निरन्तर करे।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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