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________________ ६३ जीव जड को अनन्तकाल तक नमा है पर यह नमस्कार निष्फल गया है | चेतन को एक वार भी सच्चे भाव से नमे तो वह सफल हो जाता है | चेतन को नमने का अर्थ है पिण्ड मे देह के प्रति आदर छोड़ श्रात्मा के प्रति ग्रादर रखना तथा ब्रह्माण्ड मे पुद्गल मात्र के प्रति राग छोड जीव मात्र के प्रति राग धारण करना । राग धारण करने का अर्थ है सवेदनशील बनना । जो सवेदनशील हैं उनके प्रति ममत्व बताने से सभी प्रकार की आवश्यकताएं बिना मांगे पूर्ण होती है । सभी प्रकार के पाप की उत्पत्ति पुद्गल के राग से उत्पन्न होती हैं तथा सभी प्रकार के पुण्य की उत्पत्ति चैतन्य के बहुमान से होती है | नमस्कार से चैतन्य का बहुमान होता है । श्रत वह सभी प्रकार के मंगल की उत्पत्ति का कारण है | नवकार पाप का नाशक तथा मंगल का उत्पादक बनता है क्योकि उसमें चैतन्य का बहुमान है तथा जड का असम्मान है । कर्म तथा कर्मकृत सृष्टि ही जड है । उसका अन्त करने वाले परमेष्ठि हैं । प्रत उनको किया गया नमस्कार जडसृष्टि के राग को शमित करता है तथा चैतन्यसृष्टि के प्रेम को विकसित करता है | नमस्कार द्वारा पाप का मुल पुद्गल का राग नष्ट होता है तथा धर्म का मूल चैतन्य का प्रेम प्रकट होता है श्रत वह उपादेय है । चैतन्य विश्व की सर्वश्रेष्ठ सत्ता है । नवस्कार मे इस सर्वश्रेष्ठ सत्ता को नमस्कार है तथा उनको नमस्कार है जिन्होने इस सर्वश्रेष्ठ सत्ता को नमनकर शुद्ध चैतन्य प्रकट किया है । इतना ही नही पर उनको भी नमस्कार करने वाले सभी विवेकी जीवो की सर्वश्रेष्ठ क्रिया का अनुमोदन है तथा क्रियाजन्य पापनाश एवं मंगललाभ रूपी सर्वश्रेष्ठ
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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