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________________ ६२ अनमनशील जीव को चैतन्य के प्रति नमनशील तथा पुद्गल के प्रति अनमनशील बनाता है । पच परमेष्ठि पुद्गल के प्रति विरक्त एव चैतन्य के प्रति अनुरक्त हैं, इसी से उनको नमन करने वाला भी क्रमश जड के प्रति विरक्ति वाला तथा चैतन्य के प्रति अनुरक्ति वाला वनता है। पुद्गल का विराग जीव को काम, क्रोध तथा लोभ से मुक्त करता है तथा चैतन्य का अनुराग जीव को शम, दम तथा सतोषयुक्त करता है। यह चैतन्य हितकर होने से नमनीय है तथा यह जड अहितकर होने से उपेक्षणीय है । चैतन्य सवेदन से युक्त है एव जड सवेदन शून्य है। सवेदन शून्य के प्रति चाहे जितना ही नम्र वना जाय पर वह सब व्यर्थ है । संवेदनशील के प्रति नम्र रहने से सवेदन शक्ति प्राप्त होती है । सवेदन का अर्थ है स्नेह तथा स्नेह का अर्थ है दया, करुणा, प्रमोद सहाय तथा सहयोगादि । जिससे उपकार होना तीनो काल मे शक्य नही ऐसे जड तत्त्व के प्रति नमन करते रहना ही मोह, अज्ञान तथा अविवेक है। जिससे उपकार होना शक्य हो उसे हो नमन करने का अभ्यास करना तथा उसे स्मरण पथ मे कायम रख नम्र , रहने मे ही विवेक है, समझदारी है तथा बुद्धिमत्ता है। नवकार से जड के प्रति उदासीनता तथा चैतन्य के प्रति नमनशीलता अभ्यस्त की जाती है। योग्य बनो एवं योग्यता प्राप्त करो सवेदनशील के प्रति सवेदन धारण करने से योग्यता प्रकट होती है । सवेदन शून्य जड पदार्थों के प्रति ममत्व रखने से योग्यता नष्ट होती है तथा अयोग्यता प्रकट होती है ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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