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________________ ६१ मंत्र के अर्थ का सम्बन्ध देवता एव गुरु के साथ है । गुरु, मंत्र , एव देवता तथा प्रात्मा, मन एव प्राण इन सबका ऐक्य होने से मन्त्रचैतन्य प्रकट होता है तथा मन्त्रचैतन्य प्रकट होने से यथेष्ट फल की सिद्धि होती है । देवता एव गुरु का सम्वन्ध सकल जीवसृष्टि के साथ है अत मत्र चैतन्य विश्वव्यापी बन जाता है । इस प्रकार परमेष्ठि नमस्कार समत्वभाव को विकसित करता है। - समत्वभाव का विकास ममत्वभाव को दूर कर देता है। ममत्वभाव के नाश से अहत्व मिट जाना जाता है। समत्वभाव के विकास से अर्हत्व प्रकट होता है। परमेष्ठि नमस्कार सर्व मगलो मे प्रधान श्रेष्ठमगल है साथ ही नित्य वर्द्धमान तथा शाश्वत मगल है क्योकि वह जीव को अह-ममभाव से मुक्त करता है तथा जीव मे अहंभाव को विकसित करता है, स्वार्थवृत्ति दूर करता है तथा परमार्थवृत्ति का विकास करता है । पुन. पुन परमेष्ठि नमस्कार द्वारा देव, गुरु, आत्मा, मन तथा प्राण का ऐक्य सावित होता है तथा मत्रचैतन्य प्रकट होता है। अनन्तर-परम्पर फल ...पुच नमस्कार का अनन्तर फल सम्यग्-दर्शनादि की प्राप्ति, मिथ्यात्व, अजान तथा अविरति आदि का नाश तथा परम्पर फल स्वर्गापवर्ग रूप मगल का लाभ है। पाप का नाश अर्थात् पुद्गल के प्रति मोह का नाश है तथा मगल का आगमन अर्थात् जीवो को जीवत्व के प्रति स्नेह का आकर्षण । पुद्गल के प्रति विगतरति तथा जीवो के प्रति विशिष्टरति ही नमस्कार के प्रति अभिरति का फल है। यह नमस्कार पुद्गल के प्रति नमनशील तथा चैतन्य के प्रति
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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