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________________ दोष है । सम्यग्दृष्टि के मन मे नमस्कार भाव ही सदेव है, सम्यग्ज्ञानी के मन मे सद्गुरु है एव सम्यक् चारित्री के मन मे सद्धर्म है। नमस्कारभाव के विना मानमिक भेदभाव टलता नही एव जव तक वह नहीं टलता है तब तक अहकार भाव गलता नही है । अहंकार का गलना ही भेदभाव का टलना है। भेदभाव टले बिना एक अभेदभाव आए विना जीव, जीव को जीव रूप मे कभी पहचान नही सकता है, सम्मानित नही कर सकता है एव न चाह सकता है । भेदभाव को टालने का एव अभेदभाव को साधने का सनातन साधन 'नमो' पद है। 'नमो' पद रूपी अद्वितीय साधन द्वारा जीव अपनी योग्यता को विकसित करता है एव अयोग्यता को टालता है। योग्यता के विकास द्वारा रक्षण होता है एव अयोग्यता टलने से विनाश रुकता है। : अरिहतो को किया हुआ नमस्कार भावशत्रुनो का हनन करता है, योग्यता प्रदान करता है एव विनाश को रोकता है। भावशत्रुओ के नाश से मगल होता है । योग्यता के विकास से उत्तमता मिलती है एव विनाश के अटकने से शरण की प्राप्ति होती है । नमस्कार से मगल, उत्तम एव शरण-इन तीनो अर्थों की सिद्धि होती है। मंत्रचैतन्य प्रकट करने वाला मंत्र - देवता, गुरु एव प्रात्मा का जा मनन करवाता है एव जो मनन द्वारा जीव का रक्षण करे वह मत्र है। मत्र एक ओर मन एव प्राण का प्रात्मा के साथ सयोजन करवाता है एव दूसरी ओर मनन द्वास देवता एव गुरु के साथ आत्मा का ऐक्य सधवाता है। मंत्राक्षरो का सम्बन्ध मन एवं प्रारणो के साथ है ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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