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________________ समीचीन धर्मशास्त्र १६ समीप उरैय्यर से की है जो प्राचीन चोलवंशकी राजधानी थी । कहा जाता है कि उरगपुर में जन्म लेकर बड़े होने पर जब शान्तिवर्मा (समन्तभद्रा गृहस्थाश्रमका नाम ) को ज्ञान हुआ तो उन्होंने कांचीपुर में जाकर दिगम्बर नग्नाटक यतिकी दीक्षा ले ली और अपने सिद्धान्तों के प्रचारके लिये देशके कितने ही भागोंकी यात्रा की। आचार्य जिनसेनने समन्तभद्रकी प्रशंसा करते हुए उन्हें कवि, गमक, वाढ़ी और वाग्मी कहा है। अकलंकने समन्तभद्रके देवागम प्रन्थकी अपनी अशती विवृति में उन्हें भव्य द्वितीय लोकच कहा है। सचमुच समन्तभद्रका अनुभव बढ़ा चढा था । उन्होंने लोक-जीवन के राजा-रंक, उच्च-नीच, सभी रस्तोंको आँख खोलकर देखा था और अपनी परीक्षणात्मक बुद्धि और विवेचना-शक्ति से उन सबको सम्यक दर्शन, सम्यक् आचार, और सम्यक ज्ञानकी कसौटी पर कसकर परखा था । इसीलिये विद्यानन्दस्वामीने युक्त्यनुशासनकी अपनी टीका में उन्हें 'परीक्षेक्षण' ( परीक्षा या कसौटी पर कसना ही है आँख जिसकी ) की सार्थक उपाधि प्रदान की । स्वामी समन्तभद्रने अपनी विश्वलोकोपकारिणी वाणीसे न केवल जैन मार्गको सब ओरसे कल्याणकारी बनानेका प्रयत्न किया ( जैनं प समन्तभद्रमभवद्भद्र समन्तान्मुहुः ), किन्तु विशुद्ध मानवी दृष्टिसे भी उन्होंने मनुष्यको नैतिक धरातल पर प्रतिष्टित करनेके लिये बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपनाया । उनके इस दृष्टिकोण में मानवमात्रको रुचि हो सकती है । समन्तभद्रकी दृष्टि में मनकी साधना, हृदयका परिवर्तन सच्ची साधना है, बाह्य आचार तो आडम्बरोंसे भरे हुए भी हो सकते हैं । उनकी गर्जना है कि मोही मुनिस निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ( कारिका ३३ ) । किसी ने चाहे चण्डाल योनि में भी शरीर धारण किया हो, किन्तु यदि उसमें सम्यग्दर्शनका उदय होगया है, तो देवता ऐसे व्यक्ति -
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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