SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकथन को देव-समान ही मानते हैं । ऐसा व्यक्ति भस्मसे ढके हुए किन्तु अन्तरमें दहकते हुए अंगारेकी तरह होता है- . सम्यग्दर्शन-सम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांऽगारान्तरौजसम् ॥ श्लो०२८ 'धर्म श्वानके सदृश नीचे पड़ा मनुष्य भी देव हो जाता है और पारसे देव भी श्वान बन जाता है ।' (श्लोक २८) ये कितने उदात्त, निर्भय और आशामय शब्द हैं जो धर्मके महान आन्दोलन और परिवर्तन के समय ही विश्व-लोकोपकारी महात्माओंके कण्ठोंसे निर्गत होते हैं ? 'धर्म ही वह मेरुदण्ड है जिसके प्रभावसे मामूली शरीर रखने वाले प्राणीकी शक्ति भी कुछ विलक्षण हो जाती है' ( कापि नाम भवेदन्या सम्पद् धर्माच्छरीरिणाम् । श्लोक २६)। यदि लोकमें आँख खोलकर देखा जाय तो लोग भिन्न भिन्न तरहके मोहजाल और अज्ञानकी बातों में फंसे हुए मिलेंगे। कोई नदी और समुद्रके स्नानको सब कुछ माने बैठा है,कोई मिट्टी और पत्थरके स्तूपाकार ढेर बनवाकर धमकी इतिश्री समझता है, कोई पहाड़से कूदकर प्राणान्त कर लेने या अग्निमें शरीरको जला देनेसे ही कल्याण मान बैठे हैंये सब मूर्खतासे भरी बातें हैं जिन्हें लोकमूढता कहा जा सकता है (श्लो० २२ ) । कुछ लोग राग-द्वेषकी कीचड़में लिपटे हुए हैं पर वरदान पानेकी इच्छासे देवताओंके आगे नाक रगड़ते रहते हैं--चे देवमूढ हैं ( श्लो० २३)। कुछ तरह तरहके साधु संन्यासी पाखंडियोंके ही फन्दोंमें फँसे हैं ( श्लो० २४) । इनके उद्धारका एक ही मार्ग है-सच्ची दृष्टि, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार । यही पक्का धर्म है जिसका उपदेश धर्मेश्वर लोग कर गए हैंसदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । श्लो० ३ । the ghoint
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy