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समन्तभद्र-परिचय प्रतिवादियोंपर-समन्तभद्रका इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विषण्णवदन हो जाते और किंकर्तव्यविमूढ बन जाते थे।
और एक तीसरे पद्य में यह बतलाया गया है कि-वादीसमन्तभद्रकी उपस्थितिमें, चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटिकी-तन्नामक महाप्रतिवादी विद्वान्कीजिह्वा ही जब शीघ्र अपने विलमें घुसजाती है-उसे कुछ बोल नहीं आता तो फिर दूसरे विद्वानोंकी तो कथा ( बात ) ही क्या है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्रके सामने कुछ भी महत्त्व नहीं रखता । वह पद्य, जो कविहस्तमल्लके 'विक्रान्तकौरव' नाटकमें भी पाया जाता है, इस प्रकार हैअवटु-तटमटति झटिति.स्फुट-पटु-वाचाट-धूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितिवति का कथाऽन्येषाम् ।।
यह पद्य शकसंवत् १०५० में उत्कीर्ण हुए श्रवणबेलगोलक शिलालेख नं० ५४ (६७) में भी थोड़ेसे पाठभेदके साथ उपलब्ध होता है। वहां 'धूर्जटेजिह्वा' के स्थानपर 'धूर्जटेरपि जिह्वा' और 'सति का कथाऽन्येषां' की जगह 'तव सदसि भूप ! कास्थाऽन्येषां' पाठ दिया है, और इसे समन्तभद्रके वादारम्भ-समारम्भ-समयकी उक्तियों में शामिल किया है। पद्यके उसरूपमें धूर्जटिके निरुत्तर होनेपर अथवा धूर्जटिकी गुरुतर पराजयका उल्लेख करके राजासे पूछा गया है कि 'धूजटि-जैसे विद्वानकी ऐसी हालत होनेपर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानोंकी क्या आस्था है ? क्या उनमेंसे कोई वाद करनेकी हिम्मत रखता है ?
(१२) श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० १०५ में समन्तभद्रका