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________________ মুলা ....................... तपस्वीका एक सुन्दर संक्षिप्तलक्षण ग्रन्थकार-महादयने अपने दूसरे ग्रन्थ 'समीचीनधर्मशास्त्र' ( रत्नकरण्ड ) में निम्न प्रकार दिया है : विषयाशा-वशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ - 'जो इन्ट्रिय-विषयोंकी आशातकके वशवर्ती नहीं है, प्रारम्भों से-कृषि-वाणिज्यादिरूप सावद्यकांस-रहित है, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त है और ज्ञान-ध्यानकी प्रधानताको लिये हुए तपस्यामें लीन रहता है वह तपस्वी प्रशंसनीय है।' अव रही दयाकी बात, वह तो सारे धर्मानुष्ठानका प्राण ही है। इसीसे 'मुनौ दया-दीधित-धर्मचक्र' वाक्यके द्वारा योगी माधुके सारे धर्म-समूहको दयाकी किरणोंवाला बतलाया है (७८) और सच्चे मुनिको दयामूर्तिके रूपमें पापोंकी शान्ति करनेवाला (७६) और अखिल प्राणियोंके प्रति अपनी दयाका विस्तार करनेवाला (८१) लिखा है। उसका रूप शरीरकी उक्त स्थितिके साथ विद्या, दम और दयाकी तत्परताको लिये हुए होता है (६४) । दयाके बिना न दम बनता है, न यम-नियमादिक और न परिग्रहका त्याग ही सुघटित होता है; फिर समाधि और उसके द्वारा कर्मबन्धनोंको काटने अथवा भस्म कर नेकी तो बात ही दूर है। इसीसे समाधिकी सिद्धि के लिये जहां उभय प्रकारके परिग्रह-त्यागको आवश्यक बतलाया , है वहां क्षमा-सखीवाली दया-वधूको अपने आश्रयमें रखनेकी बात भी कही गईहै (१६) और अहिंसा-परमब्रह्म की सिद्धिके लिये जहां उस आश्रमविधिको अपनानेकी बात करते हुए. जिसमें अणुमात्र भी आरम्भ न हो. द्विविध-परिग्रहके त्यागका विधान किया है वहां उस परिग्रह-त्यागीको 'परमकरुणः'
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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