________________
७६ .
प्रस्तावाना *...... ही किया जाता है (८३)-वही उसका लक्ष्य और ध्येय है, मात्र शरीरको सुखाना, कृश करना अथवा कष्ट पहुँचाना उसका उद्देश्य नहीं है । अन्तरंग तप प्रायश्चित्तादिरूप' है. जिसमें ज्ञानाराधन और ध्यान-साधनकी प्रधानता है-प्रायश्चिन्नादिक प्रायः उन्हींकी वृद्धि और सिद्धिको लक्ष्यमें लेकर किये जाते हैं। ध्यान आर्त, रौद्र. धर्म्य और शुक्ल के भेदसे चार प्रकारका. होता है, जिनमें पहले दो भेद अप्रशस्त (कलुषित) और दूसरे दो प्रशस्त (सातिशय) ध्यान कहलाते हैं। दोनों अप्रशस्त ध्यानोंको छोड़कर प्रशस्त ध्यानोंमें प्रवृित्त करना ही इस कर्मयोगीके लिये विहित है (८३) । यह योगी तपःसाधनाकी प्राधानताके कारण 'तपस्वी' भी कहलाता है; परन्तु इसका तप दूसरे कुछ तपस्वियोंकी तरह सन्ततिकी. धनसम्पत्तिकी तथा परलाकमें इन्द्रासनादि-प्राप्तिकी आशा-तृष्णाको लेकर नहीं होता बल्कि * उसका शुद्धलक्ष्य स्वात्मोपलब्धि होता है-वह जन्म-जरा-मरणरूप संसार-परिभ्रमणसे छूटनेके लिये ही अपने मन-वचन
और कायकी प्रवृत्तियोंको तपश्चरण-द्वारा स्वाधीन करता है ४८), इन्द्रिय-विषय-सौख्यसे पराङमुग्व रहता है (८१) और इतना निस्पृह हो जाता है कि अपने देहसे भी विरक्त रहता है (७३)-उसे धोना, मांजना, तेल लगाना, कोमल शय्यापर सुलाना, पौष्टिक भोजन कराना. शृङ्गारित करना और सर्दीगर्मी आदिकी परीषहोंसे अनावश्यकरूपमें बचाना जैसे कार्यों में वह कोई रुचि नहीं रखता। उसका शरीर आभूषणों वेषों, आयुधों और वस्त्र-प्रावरणादिरूप व्यवधानोंसे रहित होता है और इन्द्रयोंकी शान्तताको लिये रहता है (६४, १२०)। ऐसे १. प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र ६.२०॥